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________________ 12 // [निशीपसूत्र 4. जहा दवग्गी परिधणे वणे, समारुओ नोक्सम उवेइ / एविदियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सइ॥ -उत्त. अ. 32, गा. 11 5. रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं / वित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साहुफलं व पक्खी // ___-उत्तरा. अ. 32, गा. 10 संक्षिप्त सार-विभूषा, स्त्रीसंसर्ग व प्रणीत रस भोजन को ब्रह्मचर्य के लिए तालपुट विष के समान समझना चाहिये / स्त्री एवं स्त्रियों के चित्र पर यदि दृष्टि पहुंचे तो शीघ्र हटा लेनी चाहिये / ठहरने का स्थान स्त्री आदि से रहित होना, शयन-आसन अल्प होना, प्रकामभोजी न होकर भिक्षु को सदा ऊनोदरी युक्त ही आहार करना चाहिये / इन्द्रियों के विषयों में राग द्वेष न रखते हुए प्रवृत्ति करना चाहिये, इत्यादि सावधानियां रखने पर औषध से उपशांत बने हुए रोग के समान वेदमोह भी उपशांत रहता है, ब्रह्मचर्य में समाधि रहती है, जिससे सूत्रोक्त प्रायश्चित्त स्थानों से प्रात्मा दूर रहती है। नव वाडों एवं दश समाधिस्थानों का विवेचन अन्य आगमों से जान लेना चाहिए। 'अचित्तंसि सोयंसि'—'श्रोत' शब्द 'छिद्र' अर्थ में प्रयुक्त होता है / तथापि मार्ग, स्थान आदि अर्थ में भी इसका प्रयोग आगम में हुजा है / यहां प्रासंगिक अर्थ 'छिद्र' की अपेक्षा 'स्थान' विशेष संगत है। व्यवहारसूत्र उद्देश 6 में इस विषय के दो सूत्र हैं, दोनों में 'अचित्तंसि सोयंसि' शब्द का प्रयोग है। अन्तर इतना ही है कि मैथुन के भाव युक्त प्रवृत्ति होने पर गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है और हस्तकर्म के भाव युक्त प्रवृत्ति होने पर गुरु मासिक प्रायश्चित्त आता है। इस भिन्नता का कारण यह है कि अचित्त स्थान में की गई प्रवृत्ति हस्तकर्म है और अचित्त छिद्र में की गई प्रवृत्ति मैथुन है। अतः यहां पर 'अचित्तंसि सोयंसि' से 'अचित्त स्थान' समझना चाहिए। सचित्त पदार्थ सूघने का प्रायश्चित्त 10. जे भिक्खू सचित्त पइट्ठियं गंधं जिघइ जिघंतं वा साइज्जइ / 10. जो भिक्षु सचित्त पदार्थ में स्थित सुगंध को सूघता है या सूघने वाले का अनुमोदन करता है (उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-इस सूत्र में इच्छापूर्वक सुगंधित सचित्त फूल आदि सूघने का प्रायश्चित्त कहा गया है / आचा. श्रु. 2, अ. 15 में पांचवें महाव्रत की भावना में स्वाभाविक आने वाली गंध में राग-द्वेष की परिणति से मुक्त रहने की प्रेरणा की गई है। आचा. श्रु. 2. अ. 1, उ.८ में कहा है कि स्वाभाविक सुगंध आने पर 'अहो गंधो-अहो गंधों, ति नो गंधमाधाइज्जा' अर्थात् अहो ! क्या बढ़िया सुगंध आ रही है, ऐसा सोच कर उस सुगंध को सूघने में आसक्त न हो। जब स्वाभाविक रूप से आई हुई गंध से भी साधक को उदासीन रहने को कहा गया है तो इच्छापूर्वक सूघना तो स्पष्ट अनाचार है और उसका ही यहां प्रायश्चित्त कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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