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प्रथम अध्ययन : द्रुमपुष्पिका
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गीत, ग्रहशान्तिअनुष्ठान आदि मंगल माने जाते हैं। इस दृष्टि से पांच प्रकार के मंगल माने गये हैं— (१) शुद्धमंगल— पुत्रादि के जन्म पर गाये जाने वाले मंगलगीत, (२) अशुद्धमंगल— नूतन गृह आदि निर्माण के समय किया जाने वाला मंगल अनुष्ठान, (३) चमत्कारमंगल-विवाहादि अवसरों पर गाये जाने वाले गीत या मंगल द्रव्यों का उपयोग, (४) क्षीणमंगल-धनादि की प्राप्ति और (५) सदामंगल-धर्मपालन।६ मंगल के इन पांच प्रकारों को जैनाचार्यों ने दो कोटियों में विभक्त किया है—द्रव्यमंगल और भावमंगल। उपर्युक्त पांच मंगलों में प्रथम के चार मंगल द्रव्यमंगल हैं और लोकोत्तर धर्म भावमंगल है। द्रव्यमंगल लौकिक दृष्टि से मंगल हैं, ज्ञानी इन्हें मंगल नहीं मानते, क्योंकि इनसे आत्मा का कोई हित या कल्याण सिद्ध नहीं होता। लौकिक मंगलों में अनित्यता तथा अमंगल की भी सम्भावना है, किन्तु धर्म रूप मंगल में अमंगल की कोई सम्भावना नहीं। वह सदैव मंगलमय बना रहता है और पालन करने वाले को भी वह मंगलमय रखता है। धर्म इसलिए भी ऐकान्तिक और आत्यन्तिक मंगल है कि वह धर्म जन्ममरणरूप दुःख के बन्धनों को काटने वाला तथा मुक्ति प्रदान करने वाला है। इसलिए वह उत्कृष्ट-अनुत्तर मंगल है।
गहराई से विचार किया जाय तो धर्म को उत्कृष्ट मंगल इसलिए भी माना गया कि पूर्वोक्त चारों लौकिक मंगलों की प्राप्ति भी धर्ममंगल (धर्मपालन) से पुण्यवृद्धि होने के कारण ही सम्भव है। उक्त मांगलिक पदार्थ भी धर्ममंगल के फल के रूप बताये गये हैं। समस्त मांगलिक पदार्थों का प्रदाता या उत्पादक भी धर्ममंगल ही है। वह अनुत्तर मंगल है, उससे बढ़कर कोई उत्कृष्ट मंगल नहीं है।"
अहिंसा : स्वरूप, व्यापकता और महिमा- व्युत्पत्ति की दृष्टि से अहिंसा का दो प्रकार से अर्थ किया जाता है— जो हिंसा न हो, किन्तु हिंसा का विरोधी या प्रतिपक्षी भाव हो, वह अहिंसा है। अर्थात् प्राणातिपात न करना या प्राणातिपात से विरति अहिंसा है। यह अहिंसा का निषेधात्मक अर्थ है। अहिंसा का दूसरा अर्थ विधेयात्मक भी है। विधेयात्मक दृष्टि से अहिंसा का अर्थ होता है—जीवदया, प्राणियों के प्राणों की रक्षा, समता (प्राणियों के प्रति
१६.. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृष्ठ ४
(ख) दशवै. (गुजराती अनु.) पृष्ठ ४ १७. (क) 'दव्वे भावेऽवि अ मंगलाई, दव्वम्मि पुण्णकलसाई । धम्मो उ भावमंगलमत्तो सिद्धिति काऊणं ॥'
-नियुक्ति गाथा ४४ (ख) दव्वमंगलं अणेगंतिकं अणच्चंतियं च भवति, भावमंगलं पुण एगतियं अच्वंतियं च भवइ ।
-जि. चूर्णि, पृ. १९ (ग) अयमेव चोत्कृष्टं-प्रधानं मंगलं, ऐकान्तिकत्वादात्यन्तिकत्वाच्च, न पूर्णकलशादि, तस्य नैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च।
-हरि. वृत्ति, पत्र २४ १८. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ५ १९. 'उक्किट्ठ णाम अणुत्तरं, ण तओ अण्णं उक्किट्ठयरंति ।'
-जिन. चूर्णि, पृ. १५ २०. (क) 'हिंसाए पडिवक्खो होइ...अहिंसज्जीवाइवाओत्ति ।'
-नियुक्ति गाथा ४५ (ख) 'अहिंसा नाम पाणातिवायविरति ।'
-जिनदास चूर्णि, पृ. १५ (ग) 'न हिंसा-अहिंसा।'
—दशवै. दीपिका, टीका पृ. १