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के आदि में नमस्कार नहीं किया गया है और दशवैकालिकनिर्युक्ति के मूल के आदि में निर्युक्तिकार ने नमस्कारपूर्वक ग्रन्थ को प्रारम्भ किया है। २२६
गहराई से चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि आचार्य मलयगिरि का तर्क अधिक वजनदार नहीं है । केवल नमस्कार न करने के कारण ही पिण्डनिर्युक्ति दशवैकालिकनिर्युक्ति का एक अंश है, यह कथन उपयुक्त नहीं है । ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तन करने पर स्पष्ट होता है कि नमस्कार करने की परम्परा बहुत प्राचीन नहीं है। छेदसूत्र और मूलसूत्रों का प्रारम्भ भी नमस्कारपूर्वक नहीं हुआ है। टीकाकारों ने खींचतान कर आदि, मध्य और अन्त मंगल की संयोजना की। मंगल - वाक्यों की परम्परा विक्रम की तीसरी शती के पश्चात् की है। विषय की दृष्टि से दोनों में समानता है किन्तु पिण्डनिर्युक्ति भद्रबाहु की रचना है, यह उल्लेख आचार्य मलयगिरि के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पर भी नहीं मिलता।
दशवैकालिकनियुक्ति में सर्वप्रथम दश शब्द का प्रयोग दस अध्ययन की दृष्टि से हुआ है और काल का प्रयोग इसलिए हुआ है कि इसकी रचना उस समय पूर्ण हुई जब पौरुषी व्यतीत हो चुकी थी, अपराह्न का समय हो चुका था। प्रथम अध्ययन का नाम 'द्रुमपुष्पिका' है। इसमें धर्म की प्रशंसा करते हुए उसके लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद बताये हैं। लौकिकधर्म के ग्रामधर्म, देशधर्म, राजधर्म प्रभृति अनेक भेद किये हैं। लोकोत्तर धर्म के श्रुतधर्म और चारित्रधर्म ये दो विभाग हैं । श्रुतधर्म स्वाध्याय रूप है और चारित्रधर्म श्रमणधर्म रूप है। अहिंसा, संयम और तप की सुन्दर परिभाषा दी गई है। प्रतिज्ञा, हेतु, विभक्ति, विपक्ष, प्रतिबोध, दृष्टान्त, आशंका, तत्प्रतिषेध, निगमन इन दस अवयवों से प्रथम अध्ययन का परीक्षण किया गया है । २२७
द्वितीय अध्ययन के प्रारम्भ में श्रामण्य-पूर्वक की निक्षेप पद्धति से व्याख्या है। श्रामण्य का निक्षेप चार प्रकार से किया गया - १. नामश्रमण, २. स्थापना श्रमण, ३. द्रव्य श्रमण और ४. भाव श्रमण ।
भाव श्रमण की संक्षेप में और सारगर्भित व्याख्या की गई है। २२८ श्रमण के प्रव्रजित, अनगार, पाषंडी, चरक, तापस, भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्राता, द्रव्यमुनि, क्षान्तदान्त, विरत, रूक्ष, तीरार्थी ये पर्यायवाची हैं । पूर्वक के निक्षेप की दृष्टि से तेरह प्रकार हैं - १. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५. काल, ६. दिक्, ७. तापक्षेत्र, ८. प्रज्ञापक, ९. पूर्व, १०. वस्तु, ११. प्राभृत, १२. अति प्राभृत, १३. भाव। उसके पश्चात् काम पर भी निक्षेप - दृष्टि से चिन्तन किया है। भाव-काम के इच्छा - काम और मदन- काम ये दो प्रकार हैं। इच्छा-काम प्रशस्त और अप्रशस्त, दो प्रकार का होता है। मदन- काम का अर्थ-वेद का उपयोग स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद आदि का विपाक अनुभव | प्रस्तुत अध्ययन में मदन- काम का निरूपण है ।२२९ इस प्रकार इस अध्ययन में पद की भी निक्षेप दृष्टि से व्याख्या है | २३०
२२६. दशवैकालिकस्य च नियुक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहुस्वामिना कृता, तत्र पिण्डैषणाभिधपञ्चमाध्ययन निर्युक्तिरति—प्रभूतग्रन्थत्वात् पृथक् शास्त्रान्तरमिव व्यवस्थापिता तस्याश्च पिण्डनिर्युक्तिरिति नामकृतं अतएव चादावत्र नमस्कारोऽपि न कृतो दशवैकालिकनिर्युक्त्यन्तरगतत्वेन शेषा तु निर्युक्तिर्दशवैकालिकनिर्युक्तिरिति स्थापिता ।
२२७. दशवैकालिक गाथा - १३७ - १४८ २२८. दशवैकालिक गाथा १५२ - १५७ २२९. दशवैकालिक गाथा १६१ - १६३ २३०. दशवैकालिक गाथा १६६ - १७७
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