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________________ जो मुनि गर्व, क्रोध, माया या प्रमादवश गुरु के समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता वही (विनय की अशिक्षा) उसके विनाश के लिए होती है। जैसे कीचक (बांस) का फल उसके विनाश के लिए होता है, अर्थात् —हवा से शब्द करते हुए बांस को कीचक कहते हैं, वह फल लगने पर सूख जाता है। धम्मपद में यही उपमा इस प्रकार आई है यो सासनं अरहतं अरियानं धम्मजीविनं । पटिक्कोसति दुम्मेधो दिलुि निस्साय पापिकं ॥ फलानि कट्ठकस्सेव अत्तयज्ञा फुल्लति ॥ –धम्मपद १२।८ जो दुर्बुद्धि मनुष्य पापमयी दृष्टि का आश्रय लेकर अरहन्तों तथा धर्मनिष्ठ आर्य पुरुषों के शासन की अवहेलना करता है, वह आत्मघात के लिए बांस के फल की तरह प्रफुल्लित होता है। दशवैकालिक के दसवें अध्ययन की आठवीं गाथा में भिक्षु के जीवन की परिभाषा इस प्रकार दी है— तहे व असणं पाणगं वा विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । होही अट्ठो सुए परे वा तं न निहे न निहावए जे से भिक्खू ॥ –दशवैकालिक १०८ पूर्वोक्त विधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर, यह कल या परसों काम आएगा, इस विचार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है वह भिक्षु है। सुत्तनिपात में यही बात इस रूप में झंकृत हुई है— अन्नानमथो पानानं, खादनीयानमथोऽपि वत्थानं । लद्धा न सन्निधि कयिरा, न च परित्तसेतानि अलभमानो ॥ -सुत्तनिपात ५२-१० दशवैकालिक सूत्र के दशवें अध्ययन की दसवीं गाथा में भिक्षु की जीवनचर्या का महत्त्व बताते हुए कहा न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते । संजमधुवजोगजुत्ते उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ॥ –दशवैकालिक १०/१० जो कलहकारी कथा नहीं करता, जो कोप नहीं करता, जिसकी इन्द्रियां अनुद्धत हैं, जो प्रशान्त है, जो संयम में ध्रुवयोगी है, जो उपशान्त है, जो दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता—वह भिक्षु है। भिक्षु को भिक्षा देते हुए सुत्तनिपात में प्रायः यही शब्द कहे गए हैं—(सुत्तनिपात, तुवटक सुत्तं ५२/१६) न च कत्थिता सिया भिक्खू, न च वाचं पयुतं भासेय्य । पागब्भियं न सिक्खेय्य, कथं विग्गाहिकं न कथयेय्य ॥ भिक्षु धर्मरत्न ने चतुर्थ चरण का अर्थ लिखा है—कलह की बात न करे। धर्मानन्द कौसम्बी ने अर्थ किया कि भिक्षु को वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। दशवैकालिक के दसवें अध्ययन की ग्यारहवीं गाथा में भिक्षु की परिभाषा इस प्रकार की गई है [६३]
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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