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________________ हैं। भिखारी की भिक्षा केवल पेट भरने के लिए होती है। उस भिक्षा में कोई पवित्र उद्देश्य नहीं होता और न कोई शास्त्रसम्मत विधिविधान ही होता है। वह भिक्षा अत्यन्त निम्न स्तर की होती है। इस प्रकार की भिक्षा पौरुषघ्नी भिक्षा है।२०२ वह भिक्षा पुरुषार्थ का नाश कर अकर्मण्य और आलसी बनाती है। ऐसे पुरुषत्वहीन मांगखोर व्यक्तियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। वे मांग कर खाते ही नहीं, जमा भी करते हैं और दुर्व्यसनों में उसका उपयोग करते हैं। श्रमण अदीनभाव से अपनी श्रमण-मर्यादा और अभिग्रह के अनुकूल जो भिक्षा प्राप्त होती है उसे प्रसन्नता से ग्रहण करता है। भिक्षा में रूक्ष और नीरस पदार्थ मिलने पर वह रुष्ट नहीं होता और उत्तम स्वादिष्ट पदार्थ मिलने पर तुष्ट नहीं होता। भिक्षा में कुछ भी प्राप्त न हो तो भी वह खिन्न नहीं होता और मिलने पर हर्षित भी नहीं होता। वह दोनों ही स्थितियों में समभाव रखता है। इसलिए श्रमण की भिक्षा सामान्य भिक्षा न होकर सर्वसम्पतकरी भिक्षा है। सर्वसम्पतकरी०३ भिक्षा, देने और लेने वाले दोनों के लिए कल्याणकारी है। जिसमें संवेग, निर्वेद, विवेक, सुशीलसंसर्ग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, शांति, मार्दव, आर्जव, तितिक्षा, आराधना, आवश्यक शुद्धि प्रभृति सद्गुणों का साम्राज्य हो वह भिक्षु है। सूत्रकृतांगसूत्र में भिक्षु की परिभाषा इस प्रकार है—जो निरभिमान, विनीत, पापमल को धोने वाला, दान्त, बन्धनमुक्त होने योग्य, निर्ममत्व, विविध प्रकार के परीषहों और उपसर्गों से अपराजित, अध्यात्मयोगी, विशुद्ध, चारित्रसम्पन्न, सावधान, स्थितात्मा, यशस्वी, विवेकशील तथा परदत्त-भोजी है, वह भिक्षु है ।२०४ जो कर्मों का भेदन करता है वह भिक्षु कहलाता है। भिक्षु के भी द्रव्यभिक्षु और भावभिक्षु ये दो प्रकार हैं। द्रव्यभिक्षु मांग कर खाने के साथ ही त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा करता है, सचित्तभोजी है, स्वयं पका कर खाता है, सभी प्रकार की सावध प्रवृत्ति करता है, संचय करके रखता है, परिग्रही है। भावभिक्षु वह है जो पूर्ण रूप से अहिंसक है, सचित्तत्यागी है, तीन करण, तीन योग से सावध प्रवृत्ति का परित्यागी है, आगम में वर्णित भिक्षु के जितने भी सद्गुण हैं, उन्हें धारण करता है। भिक्षु की गौरव-गरिमा अतीत काल से ही चली आई है। जैन, बौद्ध और वैदिक तीन ही परम्पराओं में भिक्षु शीर्षस्थ स्थान पर आसीन रहा है। वैदिक परम्परा में संन्यासी पूज्य रहा है, उसे दो हाथों वाला साक्षात् परमेश्वर माना है—'द्विभुजः परमेश्वरः'। बौद्ध परम्परा में भी भिक्षु का महत्त्व कम नहीं रहा है, भिक्षु धर्म-संघ का अधिनायक रहा है। जैन परम्परा में भी भिक्षु को परम-पूज्य स्थान प्राप्त है। भिक्षु का जीवन सद्गुणों का पुञ्ज होता है, वह समाज, राष्ट्र के लिए प्रकाशस्तम्भ की तरह उपयोगी होता है। वह स्वकल्याण के साथ ही परकल्याण में लगा रहता है। धम्मपद में भिक्षु के अनेक लक्षण बताए गये हैं, जो प्रस्तुत अध्ययन में बताए गए लक्षणों से मिलते-जुलते हैं। विश्व के अनेक मूर्धन्य मनीषियों ने भिक्षु की विभिन्न परिभाषाएं की हैं। सभी परिभाषाओं का सार संक्षेप में यह है कि भिक्षु का जीवन सामान्य मानव के जीवन से अलग-थलग होता है। वह विकार और वासनाओं से एवं रागद्वेष से ऊपर उठा हुआ होता है। उसके जीवन में हजारों सद्गुण होते हैं। वह सद्गुणों से जन-जन के मन को २०२. अष्टक प्रकरण ५/१ २०३. सर्वसम्पत्करी चैका पौरुषघ्नी तथापरा । वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा विधोदिता । २०४. सूत्रकृतांग १/१६/३ -अष्टक प्रकरण ५/१ [५२]
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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