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________________ द्वितीय परिशिष्ट : कथा, दृष्टान्त, उदाहरण ४११ अपने निर्वाह के लिए किसी प्रकार का सांसारिक कार्य नहीं करता । केवल संयम - पालन के लिए गृहस्थों द्वारा निःस्वार्थ बुद्धि से दिया आहार आदि निःस्पृहभाव से ग्रहण करता हूं । में सर्वथा स्वतन्त्र और अप्रतिबद्ध हूं। मैं आहार आदि के बदले किसी गृहस्थ का कुछ भी सांसारिक कार्य नहीं करता, न किसी की खुशामद करता हूं और न किसी पर दबाव डालता हूं। इसलिए मैंने कहा कि मैं मुधाजीवी हूं। निष्काम भाव से जीता हूं।' राजा ने सबकी बातें सुन कर निर्णय किया कि वास्तव में यही सच्चा धर्मगुरु- साधु मुधाजीवी है। इसी धर्म को तथा धर्मोपदेश को ग्रहण करना चाहिए। राजा ने मुधाजीवी निर्ग्रन्थ से धर्मोपदेश सुना। संसार से विरक्ति हो गई। प्रतिबुद्ध होकर राजा उन्हीं के पास प्रव्रजित हो गया और संयम साधना करके मोक्ष का अधिकारी बना । इस दृष्टान्त का निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार से जाति आदि के सहारे, किसी की प्रतिबद्धता, अधीनता स्वीकार न करके, या किसी आशा-आकांक्षा से प्रेरित होकर दीनता या खुशामद न करने तथा निःस्पृहभाव से जीने वाले निर्ग्रन्थ मुधाजीवी अत्यन्त दुर्लभ हैं। - दशवै. अ. ५/१/२१३ ( आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज ) (१३) प्रज्ञप्तिधर : कथाकुशल कैसे होते हैं ? (आयार - पन्नत्तिधरे....) व्यवहारसूत्रभाष्य में प्रज्ञप्तिधर का अर्थ कथाकुशल करके भाष्यकार एक रोचक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं— एक क्षुल्लकाचार्य प्रज्ञप्ति - कुशल ( कथानिपुण) थे । एक दिन उनकी धर्मसभा में मुरुण्डराज उपदेश श्रवण कर रहे थे। प्रसंगवश मुरुण्डराज ने एक प्रश्न प्रस्तुत किया—' भगवन् ! देवता गतकाल को नहीं जानते, इसे सिद्ध कीजिए । ' राजा ने प्रश्न पूछा कि आचार्य सहसा खड़े हो गए। आचार्य को खड़ा होते देख मुरुण्डराज भी खड़ा हो गया । आचार्य को क्षीरास्रवलब्धि प्राप्त थी। वे उपदेश देने लगे। उनकी वाणी से दूध की-सी मधुरता टपक रही थी । मुरुण्डराज मन्त्रमुग्ध की तरह सुनता रहा। उसे पता ही न लगा कि कितना समय बीत गया है ? आचार्य ने पूछा— 'राजन् ! तुम्हें खड़े हुए कितना समय बीत गया ?'' भगवन् ! मैं तो अभी-अभी खड़ा हुआ हूं। राजा ने कहा । आचार्य ने कहा—'तुम्हें खड़े हुए एक पहर बीत चुका है। उपदेश- श्रवण में तुम इतने आनन्द विभोर हो गए कि तुम्हें गतकाल का पता नहीं चल सका। इसी प्रकार देवता भी नृत्य, गीत, वाद्य आदि में इतने आनन्दमग्न हो जाते हैं कि वे भी गतकाल को नहीं जान पाते। यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है।' — दशवै. अ. ८, गा. ४९ -व्यवहारभाष्य ४/३/१४५ - १४९ (१४) स्त्री से ही नहीं, स्त्रीशरीर से भी भय ! (जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुललओ भयं ० ) ब्रह्मचारी साधक को स्त्री से भय है, ऐसा न कह कर स्त्री- शरीर से भय है, इस सम्बन्ध में आचार्य जिनदास महत्तर ने एक संवाद प्रस्तुत किया है—
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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