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________________ ४०६ दशवैकालिकसूत्र को युक्ति से समझा दूंगा।' आचार्यश्री वहीं विराजे । बुद्धिमान् अभयकुमार ने दूसरे दिन एक सार्वजनिक स्थान पर तीन रत्नकोटि के ढेर लगवा कर नगर में घोषणा कराई—'अभयकुमार रत्नों का दान देना चाहते हैं।' घोषणा सुनकर घटनास्थल पर लोगों की भीड़ जमा हो गई। अभयकुमार ने एक ऊंचे स्थान पर खड़े होकर कहा—'मैं ये तीन रत्नकोटि के ढेर उस व्यक्ति को देना चाहता हूं, जो अग्नि, सचिंत्त जल और स्त्री, इन तीनों चीजों को जीवन भर के लिए छोड़ देगा।' यह सुनते ही लोग बगलें झांकने लगे, बोले-'इन को छोड़कर कौन तीन रत्नकोटि लेना चाहेगा?' जब कोई भी इन तीनों साररत्नों का आजीवन त्याग करने को तैयार न हुआ तो अभयकुमार ने कहा—'तब क्यों ताना मारते हो कि यह निर्धन लकड़हारा प्रव्रजित हुआ है ? इनके पास स्थूल धन भले ही न रहा हो, परन्तु इन्होंने तीन साररत्नकोटियों का जीवनभर के लिए त्याग किया है।' लोग निरुत्तर होकर बोले—'आपकी बात यथार्थ है, मंत्रिवर ! अब हम कदापि इनके प्रति घृणा नहीं करेंगे। ये महान् त्यागी एवं पूज्य हैं।' 'हे शिष्य ! इसी प्रकार तीन सार पदार्थ अग्नि, सचित्त जल और कामिनी का जीवनभर के लिए स्वेच्छा से त्याग कर प्रव्रजित होने वाला निर्धन व्यक्ति भी श्रमणधर्म में स्थिर होने पर त्यागी ही कहलाएगा।' —दशवै. अ. १, गा. ३, हारि. वृत्ति, पत्र ९३ (६) कदाचित् मन संयम से बाहर निकल जाए तो ! (सिया मणो निस्सरई बहिद्धा०) एक बार राजकुमार बाहर उपस्थानशाला में खेल रहा था। एक दासी जल से भरा हुआ घड़ा लेकर पास से निकली। राजकुमार ने कंकर मार कर उसके घड़े में छिद्र कर दिया। दासी रोने लगी। उसे रोती देख राजकुमार ने फिर कंकर मारा। इस बार छेद कुछ बड़ा हो गया। दासी ने सोचा-'जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो कहां पुकार की जाए? यह सोच कर उसने कीचड़ से सनी गीली मिट्टी ली और घड़े के छेद पर लगा दी। इस तरह घड़े का छिद्र बन्द करके वह घड़ा लेकर घर पहुंच गई।' इसी प्रकार संयमरूपी घट में रहते हुए, कदाचित् संयमी का मन संयमघट से, अप्रशस्त परिणामरूपी छिद्र द्वारा बाहर निकलने लगे तो अपनी दीन-हीनता एवं असमर्थता का रोना-धोना छोड़ कर शुभसंकल्परूपी मिट्टी के लेप से उक्त छिद्र को तत्काल बन्द करके ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप मोक्षमार्ग पर चल पड़ना चाहिए। -दशवै. अ. २, गा.४,जिनदासचूर्णि (७) न वह मेरी, न मैं उसका (न सा महं, नो वि अहंपि तीसे) मनोज्ञ वस्तु पर से रागभाव दूर करने के लिए रामबाण उपाय बताते हुए उसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं एक वणिक्पुत्र अपनी प्रियतमा को छोड़ कर प्रव्रजित हो गया। किन्तु यदा-कदा पूर्व संस्कारवश उसे स्त्री की याद सताती थी। उसने गुरु महाराज से इस राग के निवारण का उपाय पूछा, तो उन्होंने एक मंत्र रटने के लिए दिया"न वह मेरी, न मैं उसका।" बस, वह दिनरात इसी मंत्र का रटन करता रहता। एक दिन मोहोदयवश फिर विचार
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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