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________________ द्वितीय परिशिष्ट कथा, दृष्टान्त, उदाहरण (१) सहजनिष्पन्न भिक्षा से निर्वाह करेंगे (वयं च वित्तिं लब्धामो०) एक श्रमण भिक्षा के लिए किसी नव-भक्त के घर पहुंचे। गृहस्वामी ने वन्दना करके आहारग्रहण करने की भक्तिभावपूर्वक प्रार्थना की। श्रमण ने पूछा—'यह भोजन हमारे लिए तो नहीं बनाया ?' गृहपति ने सहमते हुए कहा—'इससे आपको क्या? आप तो भोजन ग्रहण कीजिए।' श्रमण ने कहा—'ऐसा नहीं हो सकता। हम अपने निमित्त बना हुआ (औद्देशिक) आहार ग्रहण नहीं कर सकते।' गृहपति—'उद्दिष्ट आहार लेने में क्या हानि है ?' श्रमण औद्देशिक आहार लेने से श्रमण त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा के पाप का भागी होता है।' गृहस्वामी तो फिर आप अपना जीवननिर्वाह कैसे करेंगे?' श्रमण—'हम गृहस्थ के यहां उसके अपने परिवार के उपभोग के लिए सहज निष्पन्न (यथाकृत) आहार लेंगे और उस निर्दोष भिक्षा से प्राप्त आहार से अपना निर्वाह करेंगे।' -दशवै. अ. १, गा. ४ चूर्णि (२) पद-पद पर विषादग्रस्त (पए-पए विसीयंतो०) कोंकणदेशीय एक वृद्ध साधु ने एक लड़के को दीक्षा दी। वृद्ध साधु का अपने शिष्य पर अतीव मोह था। एक दिन शिष्य उद्विग्न होते हुए कहने लगा—'गुरुजी! बिना पगरखी के मुझ से चला नहीं जाता।' वृद्ध ने अनुकम्पावश उसे पगरखी पहनने की छूट दे दी। एक दिन शिष्य ने ठंड से पैर फटने की शिकायत की, तो वृद्ध ने मोजे पहनने की स्वीकृति दे दी। शिष्य की मांग हुई कि 'मेरा सिर गर्मी से तप जाता है, अतः सिर ढंकने के लिए वस्त्र चाहिए।' वृद्ध ने उसे सिर पर कपड़ा ढंकने की छूट दे दी। अब क्या था? एक दिन वह बोला—'मेरे से भिक्षा के लिए घर-घर घूमा नहीं जाता!' वृद्ध स्वयं आहार लाकर देने लगा। फिर कहने लगा—'जमीन पर सोया नहीं जाता।' इस पर वृद्ध ने बिछौना बिछाने की छूट दे दी। तब बोला—'लोच मुझ से नहीं होगा और न मैं नहाए बिना रह सकूँगा!' वृद्ध ने उसे क्षुरमुण्डन कराने और प्रासुक पानी से नहाने की आज्ञा दे दी। शिष्य गुरु के अत्यन्त स्नेहवश प्रत्येक बात में छूट मिलती देख एक दिन बोला—'गुरुजी! अब मैं स्त्री के बिना नहीं रह सकता।' गुरु ने उसे अयोग्य और सुविधालोलुप जान कर अपने आश्रय से दूर कर दिया। सच है, कामनाओं के वशीभूत व्यक्ति बात-बात से शिथिल होकर सुकुमारतावश श्रमणत्व से भ्रष्ट हो जाता है। -दशवै. अ. २, गा. १, हारि. वृत्ति, पत्र ८९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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