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________________ द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या ३८५ होउकामेण के दो अर्थ व्याख्याकारों ने किए हैं—(१) मुक्त होने की इच्छा वाला, अथवा (२) विषयभोगों से विरक्त होकर संयम की आराधना करना चाहने वाला। 'पडिसोअलद्धलक्खेणं' का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार धनुर्वेद या बाणविद्या में दक्ष व्यक्ति बालाग्र जैसे सूक्ष्मतम लक्ष्य को बींध देता है, उसी प्रकार विषयभोगों को त्यागने वाला संयम के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। अणुसोयसुहो लोहो : भावार्थ—जिस प्रकार काष्ठ नदी के अनुस्रोत में सरलता से चला जाता है, किन्तु प्रतिस्रोत में कठिनता से जाता है, उसी प्रकार संसारी जीवों को अनुस्रोतरूप विषयभोगों की ओर ढलना सुखावह लगता है, किन्तु वे इन्द्रियविजयरूप प्रतिस्रोत की ओर सुखपूर्वक गमन नहीं कर सकते। विविक्तचर्या का बाह्य रूप-गाथा ५६३ में विविक्तचर्या के बाह्य रूप की एक झांकी दी है—'चरिया गुणा य नियमा य।' चरिया : चर्या के दो अर्थ इस प्रकार हैं—(१) आगे कही जाने वाली श्रमणभाव-साधिका अनियतवासादिरूप शुद्ध श्रमणचर्या, अथवा (२) मूलोत्तरगुणरूप चारित्र । गुणा—(१) मूलोत्तरगुण, (२) अथवा ज्ञानादि गुण, तथा (३) मूलोत्तरगुणों की रक्षा के लिए जो भावनाएं हैं, वे तथा नियमा–नियम–प्रतिमा (द्वादशविध भिक्षुप्रतिमा) एवं विशिष्ट प्रकार के अभिग्रह (संकल्प या प्रतिज्ञा आदि) चर्या, गुण और नियम, ये तीनों मिलकर विविक्तचर्या का बाह्य रूप बनता है। विविक्तचर्या के पालन के तीन उपाय प्रस्तुत बाह्य विविक्तचर्या के पालन के लिए शास्त्रकार ने तीन उपाय इसी गाथा में बताए हैं—(१) आयारपरक्कमेण, (२) संवरसमाहिबहुलेण और (३) हुंति साहूण दट्ठव्वा। तीनों का आशय क्रमशः इस प्रकार है—(१) साधु-साध्वी द्वारा ज्ञानादि पंचाचारों में सतत पराक्रम करने से, अथवा आचार को सतत धारण करने का सामर्थ्य प्राप्त करने से, (२) प्रायः इन्द्रिय-मन:संयमरूप संवरधर्म में चित्त को समाहित—अनाकुल या अप्रकम्प रखने से तथा विविक्तचर्या के पूर्वोक्त तीनों अंगों (चर्या, गुण एवं नियम) पर प्रतिक्षण दृष्टिपात करते रहने से अथवा इन तीनों को शास्त्रनिर्दिष्ट समय के अनुसार आचरण करने से जिस समय जो क्रिया आसेवन करने योग्य हो, उस समय उसका आशय आसेवन करने से अर्थात् आगे पर न टालने से या उपेक्षा न करने से भिक्षा, विहार और निवास आदि के रूप में एकान्त और पवित्र विविक्तचर्या ५६४. अणिएयवासो समुयाणचरिया, अण्णाय-उंछं पइरिक्कया य । अप्पोवही कलहविवज्जणा य, विहारचरिया इसिणं पसत्था ॥ ५॥ ४. (क) णिव्वाणगमणारुहो 'भविउकामो' होउकामो तैण होउकामेण । आसवो णाम इंद्रियजओ। —जिन.चूर्णि, पृ. ३६९ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मा.), पृ. १०४१ (ग) 'भवितुकामेन'—संसारसमुद्रपरिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साधुना, न क्षुद्र-जनाचरितान्युदाहरणीकृत्यासन्मार्गप्रवणचेतोऽपि कर्त्तव्यम्, अपित्वागमैकप्रवणेनैव भवितव्यम् । —हारि. वृत्ति ५. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. १०४१ ६. जिनदासचूर्णि, ३७, हारि. टीका, पृ. २७०
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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