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________________ दसवां अध्ययन : स-भिक्षु ३५१ [५२२] जो (सचित्त) पृथ्वी को नहीं खोदता तथा दूसरों से नहीं खुदवाता, शीत (सचित्त) जल नहीं पीता और न पिलाता है, (खड्ग आदि) शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण अग्नि को न जलाता है और न जलवाता है, वह भिक्षु है ॥२॥ [५२३] जो वायुव्यंजक (पंखे आदि) से हवा नहीं करता और न दूसरों से करवाता है, जो हरित (हरी वनस्पति) का छेदन नहीं करता और न दूसरों से कराता है, जो बीजों (बीज आदि) का सदा विवर्जन करता हुआ (उनके स्पर्श से दूर रहता हुआ) सचित्त (पदार्थ) का आहार नहीं करता, वह भिक्षु है ॥३॥ [५२४] (भोजन बनाने में) पृथ्वी, तृण और काष्ठ में आश्रित रहे हुए त्रस और स्थावर जीवों का वध होता है। इसलिए जो औद्देशिक (आदि दोषों से युक्त आहार) का उपभोग नहीं करता तथा जो (अन्नादि) स्वयं नहीं पकाता और न दूसरों से पकवाता है, वह सद्भिक्षु है ॥४॥ ___ [५२५] जो ज्ञातपुत्र (श्रमण भगवान् महावीर) के वचनों में रुचि (श्रद्धा) रख कर षट्कायिक जीवों (सर्वजीवों) को आत्मवत् मानता है, जो पांच महाव्रतों का पालन करता है, जो पांच (हिंसादि) आस्रवों का संवरण (निरोध) करता है, वह सद्भिक्षु है ॥५॥ विवेचन सद्भिक्षु की परिभाषा—जो विधिवत् गृहस्थाश्रम का त्याग कर षट्जीवनिकाय का त्राता एवं पंचमहाव्रती बनता है, वही वास्तविक भिक्षु है, यही इन ५ गाथाओं में बताया गया है। निक्खम्ममाणाए : व्याख्या आणाए : आज्ञा से तीर्थंकर एवं गणधर की आज्ञा, आगम, उपदेश, सन्देश या वचन से। निक्खम्म निष्क्रम्य अर्थात् (१) द्रव्यगृह और भावगृह से निकल कर, प्रव्रजित होकर, (२) सर्वसंगपरित्याग करके, अथवा गृह या गृहस्थभाव से निकल कर द्विपद आदि का त्याग कर । द्रव्यगृह अर्थात् घर और भावगृह यानी गृहस्थभाव, गृहस्थ-सम्बन्धी प्रपंच या सम्बन्ध। (३) आरम्भ-समारम्भ से दूर हो कर। बुद्धवयणे चित्तसमाहिओ : अर्थ बुद्धवचन में समाहितचित्त, इनका भावार्थ है—बुद्ध अर्थात् तीर्थंकरों या गणधर के वचन अर्थात् प्रवचन में जिसका चित्त भलीभांति आहित—लीन होता है। इत्थीण वसं न यावि गच्छे : अभिप्राय चित्तसमाधि में सबसे बड़ा विघ्न है स्त्रीसंग अर्थात् तत्सम्बन्धी कामभोगों की अभिलाषा। इसलिए समाधिस्थ चित्त वाले भिक्षु के लिए गुण बताया है कि सर्वाधिक दुर्जेय स्त्रीसम्बन्धी कामभोगाभिलाषा के वशीभूत नहीं होता। ____वंतं नो पडियायइ वान्त अर्थात् वमन किये (त्यागे हुए) विषयभोगों को नो प्रत्यापिबति—पुनः नहीं १. (क) आणा वा आणत्ति नाम उववायोत्ति वा उवदेसोत्ति वा आगमो त्ति वा एगट्ठा । निष्क्रम्य तीर्थकरगणधराज्ञया निष्क्रम्य-सर्वसंगपरित्यागं कृत्वेत्यर्थः .....निक्खम्म नाम गिहाओ गिहत्थभावाओ वा दुपदादीणि चइऊण । —जिनदासचूर्णि, पृ. ३३८ (ख) आणा वयणं संदेसो वा । निक्खम्म-निग्गच्छिऊण गिहातो आरंभातो वा । -अगस्त्यचूर्णि २. (क) बुद्धवचने-अवगततत्त्वतीर्थंकर-गणधरवचने । चित्तसमाहितः—चित्तेनातिप्रसन्नो भवेत्, प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः । -हारि. वृत्ति, पत्र २६५ (ख) बुद्धा जाणणा तेसिं वयणं-बुद्धवयणं दुवालसंगं गणिपिडगं । - ३. चित्त-समाधाण-विग्घभूता विसया तत्थवि पाहण्णेण इत्थिगतत्ति भणति इत्थीण वसं । -अगस्त्यचूर्णि
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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