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________________ नवम अध्ययन : विनयसमाधि आकर (खान) हैं, (२ से ५) समाहिजोग समाधियोग से अर्थात् विशिष्ट ध्यान से, सुय-सीलबुद्धिए- श्रुत, शील और प्रज्ञा से, श्रुत अर्थात् द्वादशांगी के अभ्यास से, शील अर्थात् परद्रोहविरतिरूप शील से और बुद्धि सद्असद्विवेकशालिनी प्रज्ञा से अथवा औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों से संयुक्त हैं और (६) महेसी : दो रूप : दो अर्थ (१) महर्षि —महान् ऋषि, (२) महेषी-मोक्षैषी मोक्षाभिलाषी हैं। __ ऐसे महान् आचार्यों की आराधना क्यों करनी चाहिए? इस विषय में इन दोनों गाथाओं में साधु के जो विशेषण दिये गये हैं, वे ही कारण हैं—(१) क्योंकि साधु सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि भावरत्नों को प्राप्त करने का इच्छुक है, (२) क्योंकि वह कर्मक्षयरूप निर्जराधर्म का आकांक्षी है, (३) क्योंकि वह मेधावी है, अर्थात् मर्यादाशील है, अथवा स्वपरहित-बुद्धि से सम्पन्न है।५ महान् आचार्यों की आराधना कैसे करे ?—इसके लिए गाथा में प्रयुक्त ये शब्द विशेष मननीय हैं—(१) आराहए, (२) तोसइ, (३) सुच्चाण,सुभासियाई,सुस्सूसए, (४) अप्पमत्तो। इनका भावार्थ क्रमशः इस प्रकार है—(१) पूर्वगाथाओं के विवेचन में कथित विनयभक्ति के सभी प्रकारों द्वारा आराधना करे, (२) उन्हें अपने विनयव्यवहार से तथा ज्ञानादि की आराधना करके तुष्ट—प्रसन्न करे, (३) पूर्वगाथाओं में उक्त विनयधर्म के सुभाषितों को अथवा आचार्य के सुवचनों को अवधानपूर्वक सुन कर उनकी सेवा-शुश्रूषा करे, (४) निद्रादि प्रमादों को छोड़कर अप्रमत्तभाव से आचार्यश्री की आज्ञा का पालन करे। तीन फलश्रुति आचार्यश्री की आराधना से तीन फल उपलब्ध होते हैं—(१) सम्यग्दर्शन; सम्यग्ज्ञान आदि अनेक सद्गुणों की आराधना होती है, (२) या तो उसी भव में सर्वोत्कृष्ट सिद्धि मुक्ति प्राप्त हो जाती है, (३) या अनुत्तरविमान तक पहुंचकर सुकुलादि में जन्म लेकर क्रमशः मोक्षप्राप्ति होती है। ॥ नवम अध्ययन : विनय-समाधि : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ १४. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८६१ (ख) महागरा समाधिजोगाणं सुत्तस्सबारसंगस्स, सीलस्स य बुद्धिए य अथवा सुत-सील-बुद्धीए समाधिजोगाणं महागरा। -अगस्त्यचूर्णि, पृ. २०८ (ग) 'महैषिणो मौक्षैषिणः, कथम् महैषिण? इत्याह समाधियोग-श्रुत-शील-बुद्धिभिः । समाधियोगै:-ध्यानविशेषैः, श्रुतेन द्वादशांगाभ्यासेन, शीलेन—परद्रोहविरतिरूपेण, बुद्ध्या य औत्पतिक्यादिरूपया।' -हारि. वृत्ति, पत्र २४६ १५. दशवै. पत्राकार, (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ८६१, ८६३ १६. दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८६१ से ८६३ तक १७. वही, पत्राकार, पृ.८६१,८६३
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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