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________________ ३१८ दशवकालिकसूत्र ज्ञानी) हो जाने पर भी गुरु की सविनय उपासना करे, (२) जिन से आत्मगुणविकासकर धर्मसिद्धान्त-वाक्यों का कल्याणकारी शिक्षण लिया है, उन परम-उपकारी गुरु की हर प्रकार से विनय करना चाहिए। (३) विशुद्धिस्थानरूप लज्जा, दया आदि सद्गुणों का जिन गुरुओं ने मुझे बारबार शिक्षण देकर कल्याणभागी बनाया है, उनकी सतत पूजा-भक्ति करनी उचित है। (ऐसा विचार करना चाहिए।) _ 'आहियग्गी' आदि पदों के विशेषार्थ:-आहियग्गी-आहिताग्नि—जो ब्राह्मण अग्निहोत्री बनने के लिए अपने घर में अग्नि सतत प्रज्वलित रखता है, उसकी पूजा विविध मंत्रों और आहुतियों से करता है, वह आहिताग्नि कहलाता है। मंतपय मंत्रपदों से–'अग्नये स्वाहा' इत्यादि मंत्रवाक्यों से। आहुई आहुतियों से मंत्र पढ़कर अग्नि में घृत, मधु आदि को डालना आहुति है। धम्मपयाई धर्मबोधरूप फल वाले सिद्धान्तवाक्य धर्मपद हैं। विनयभक्ति के प्रकार प्रथम विनयभक्ति–नमस्कार से होती है, यह नमन सिर झुका कर किया जाता है। अपना अहं दूर करने के लिए सर्वप्रथम अंग नमस्कार है। नमस्कार जिसको किया जाता है, उसकी गुरुता का और अपनी लघुता का द्योतक है। जब मनुष्य स्वयं को लघु समझेगा, तभी वह गुरुता की ओर बढ़ेगा। दूसरी विनयभक्ति करयुगल जोड़ना है। दोनों हाथ जोड़ कर गुरु को वन्दना की जाती है। 'सिरसा पंजलीओ' इन दोनों से चूर्णिकार 'पंचांगवन्दन'-विधि सूचित करते हैं। सिरसा पंजलीओ' का फलितार्थ हैवे पंचांगवन्दन करते हैं। यथा—दोनों घुटनों को भूमि पर टिका कर, दोनों हाथों को भूमि पर रख कर, उन पर पांचवां अंग सिर रखकर नमाना पंचांगवन्दन है। तीसरी विनयभक्ति—काया द्वारा सेवा-शुश्रूषा करने से होती है। यथा -गुरु के पधारने पर खड़े होना, उठकर सामने जाना, उनका पैर पोंछना, उन्हें आहार-पानी लां कर देना, रुग्णावस्था में उनकी सेवा करना, (पगचंपी करना, दवा लाना) इत्यादि। __चौथी विनयभक्ति-वचन से सत्कार करने से होती है। यथा-कहीं आते-जाते विनयपूर्वक 'मत्थएण वंदामि' कहना प्रसंगोपात्त गुरु के गुणगान, स्तुति, प्रशंसा आदि करना, गुरु द्वारा किसी कार्य की आज्ञा मिलने पर या गुरु द्वारा कोई शिक्षावचन कहे जाने पर 'तहत्ति' कह कर स्वीकार करना आदि। ___पांचवीं विनयभक्ति-मन से होती है। यथा --गुरु के प्रति अपने हृदय में पूर्ण अविचल श्रद्धा एवं भक्तिभावना रखना, गुरु को सर्वोपरि पूज्य मानना, उनको अपने व्यवहार से किसी भी प्रकार का क्लेश न हो, इसका ध्यान रखना। 'नित्य' शब्द यहां इसलिए दिया गया है कि यह गुरुभक्ति केवल शास्त्राध्ययन के समय में ही न हो, किन्तु सदैव, प्रत्येक परिस्थिति में करनी चाहिए। ७. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ८५२ ८. (क) आहिताग्निः कृतावसथादिाह्मणः । आहुतयो-घृतप्रक्षेपादिलक्षणाः । मंत्रपदानि–'अग्नये स्वाहेत्यवमादीनि ।' धर्मपदानि-धर्मफलानि सिद्धान्तफलानि । -हारि. वृत्ति, पत्र २४५ (ख) नाणाविहेण घयादिणा मंतं उच्चारेऊण आहयं दलयइ । -जिनदासचूर्णि, पृ.३०६ (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८५४ (ख) सिरसा पंजलीओ क्ति-एतेण पंचंगितस्स वंदणं गहणं । -अ.चू., पृ. २०८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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