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नवम अध्ययन : विनयसमाधि
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की आशातना के दुष्परिणामों का विविध उपमाओं द्वारा निरूपण किया गया है।
विणयं न सिक्खे : व्याख्या गुरुदेव के समीप रह कर विनय नहीं सीखता अर्थात् -विनय का शिक्षण या अभ्यास नहीं करता। जिनदासचूर्णि में विनय के दो भेद किये गये हैं—ग्रहणविनय और आसेवनविनय। अगस्त्यचूर्णि एवं हारि. वृत्ति में 'ग्रहण' के बदले 'शिक्षा' शब्द मिलता है। ग्रहणविनय का अर्थ है शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना, साधुसमाचारी, श्रमणधर्म आदि का शिक्षण लेना। आसेवनाविनय का अर्थ है साध्वाचार एवं प्रतिलेखनस्वाध्याय-ध्यान आदि धर्मक्रिया का प्रशिक्षण या अभ्यास करना। व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो दशाश्रुतस्कन्ध आदि में विनय का अर्थ आदर, बहुमान, नम्रता, अनुशासन, मर्यादा, विशिष्टनीति (कर्तव्यनिष्ठा), अनाशातना, संयम और आचार आदि है।
'थंभा' आदि पदों के अर्थ थंभा-स्तम्भ से गर्व से। मयप्पमाया माया और प्रमाद (मद, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा असावधानी आलस्य आदि) वश। अभूइभावो : अभूतिभाव-भूति का अर्थ है वैभव या ऋद्धि, भूति का अभाव अभूतिभाव है, जिसका पर्यायवाची शब्द विनाशभाव है। कीयस्स वहाय हवा चलने से जो आवाज करता है, उस बांस को कीचक कहते हैं। वह फल लगते ही सूख जाता है और नष्ट हो जाता है। अतः कीचक बांस का फल उसके विनाश के लिए होता है, उसी प्रकार अहंकार आदि दुर्गुण ज्ञान-दर्शन आदि गुणों, आत्मशक्तियों के विनाश (विकसित न होने देने) के लिए होते हैं।
विनयधर्म को ग्रहण न करने वाले कौन-कौन?—प्रस्तुत गाथा (४५२) में बताया गया है कि जो जाति कुल, बल रूप आदि का अहंकार करते हैं, जो क्रोधी हैं, बात-बात में आगबबूला हो जाते हैं, गुरु से शिक्षा लेत समय जिनकी त्योरियां चढ़ जाती हैं, जो मायावी हैं, शिक्षा पाने के डर से 'आज मेरे पेट में दर्द है' या 'मस्तक दुख रहा है', इत्यादि छल-कपट करके बेकार बैठे रहने, गपशप करने या सोते रहने में राजी रहते हैं, इसी तरह जो प्रमादी हैं, जिन्हें पढ़ने-लिखने या सेवा करने में अरुचि होती है, ऐसे दुर्गुणों वाले साधक विनयधर्म की शिक्षा ग्रहण करने के अधिकारी नहीं हो सकते।' १. (क) जिनदासचूर्णि, पृ. ३०२ : विनयेन न तिष्ठति, नासेवत इत्यर्थः । विणये दुविहे-गहणविणए, आसेवणाविणए । (ख) विनयं आसेवना-शिक्षाभेदभिन्नम् ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २४२ (ग) दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ४ (घ) दसवेयालियं (मनि नथमलजी).प.४३० (ङ) दशवै. (संतबालजी), पृ. ११९ (क) दशवै. (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८३२ (ख) मायातो निकृतिरूपायाः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २४२ (ग) प्रमादग्रहणेन—निद्दाविकहादिपमादट्ठाणा गहिया । अभूतिभावो नाम अभूतिभावो त्ति वा विणासभावो त्ति वा एगट्ठा।
-जिनदासचूर्णि, पृ. ३०२ (घ) भूतिभावो ऋद्धी, भूतीए अभावो अभूतिभावो—असंपद्भाव इत्यर्थः । कीयो वंसो, सो य फलेण सुक्खति।
—अगस्त्यचूर्णि, पृ. २०६ (ङ) स्वनन् वातात् स कीचकः ।
-अभिधानचिन्तामणि, ४-२१९ ३. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८३४