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________________ नवमं अज्झयणं : विणयसमाही नौवां अध्ययन : विनयसमाधि प्राथमिक 0 दशवैकालिकसूत्र का यह नौवां अध्ययन विनयसमाधि है। विनय में समाधि किन-किन उपायों से एवं किस-किस प्रकार के आचरण से प्राप्त होती है ? यही इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है। नौवें पूर्व की तृतीय वस्तु से यह अध्ययन उद्धृत हुआ है। जिस प्रकार वृक्ष, रथ आदि के योग्य होता है, तथा सोना, कड़ा-कुण्डल आदि बनाने के योग्य होता है, ठीक इसी प्रकार आत्मा भी विनयधर्म से समाधि के योग्य होता है। ॥ विनय का अर्थ केवल नमन करना, झुक जाना, वाणी से नम्रता दिखाना ही नहीं है, क्योंकि कई लोग अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए, दूसरों को धोखा देने या ठगने के लिए भी नमते-झुकते हैं, या मीठेमीठे वचन बोलकर नम्रता दिखाते हैं। विनयवादी भी एकान्तरूप से कायिक विनय को ही कल्याण का साधन मानकर पापी, उद्दण्ड आदि सभी मनुष्यों को ही नहीं, कुत्ते, घोड़े, सिंह, सर्प आदि को भी नमन करते हैं। लौकिक लाभ की दृष्टि से विनय के मुख्यतया चार भेद हैं—(१) लोकोपचारविनय, (२) अर्थविनय, (३) कामविनय और (४) भयविनय। लोकोपचारविनय-लौकिक लाभ या फल के लिए नाना प्रकार से विनय, भक्ति, सेवाशुश्रूषा आदि करना। अर्थविनय-धनप्राप्ति के लिए राजा, सेठ, मंत्री या ग्राहक आदि का विनय करना। कामविनय कामसुख के लिए या भोगसामग्री प्राप्त करने के लिए कुलटा स्त्रियों आदि के समक्ष नम्रता दिखाना, धनादि द्वारा सत्कार करना, सेवा करना। भयविनय किसी भी प्रकार के भयवश वेतनभोगी नौकर, दास, दुर्बल या निर्धन आदि द्वारा अपने स्वामी (मालिक) या सेठ अथवा जबर्दस्त व्यक्ति आदि की विनय करना। ये चारों प्रकार लौकिक विनय के हैं। लोकोत्तरविनय अथवा मोक्षविनय लोकोत्तरविनय के सम्बन्ध में जैनधर्म का दृष्टिकोण केवल गुरु के प्रति नम्रता के अर्थ में परिसीमत नहीं है। वह लोकोत्तरविनय को धर्म का मूल और उसका परम (उत्कृष्ट) फल मोक्ष को मानता है। इसका फलितार्थ यह है कि जो आचरण या व्यवहार कर्मों के बन्धन से आंशिक या सर्वथा रूप से मुक्त (मोक्ष) होने का हेतु हो, उसे मोक्ष या लोकोत्तरविनय दशवै. नियुक्ति गाथा १७ २. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ८३२ ३. वही, पृ.८३३ ४. एवं धम्मस्स विणओ, मूलं, परमो से मोक्खो । -दश. ९/२/२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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