SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ दशवकालिकसूत्र ४५१. से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे । विरायइ कम्मघणम्मि अवगए, कसिणऽब्भपुडावगमे व चंदिमा ॥ ६३॥ –त्ति बेमि ॥ ॥अट्ठमं : आयारप्पणिहि-अज्झयणं समत्तं ॥ [४४९] (जो मुनि) इस (सूत्रोक्त) (बाह्याभ्यन्तर) तप, संयमयोग और स्वाध्याययोग में सदा निष्ठापूर्वक प्रवृत्त रहता है, वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसी प्रकार समर्थ होता है, जिस प्रकार सेना से घिर जाने पर समग्र आयुधों (शस्त्रास्त्रों) से सुसज्जित शूरवीर ॥६१॥ ___ [४५०] स्वाध्याय और सद्ध्यान में रत, त्राता, निष्पापभाव वाले (तथा) तपश्चरण में रत मुनि का पूर्वकृत (कर्म) मल उसी प्रकार विशुद्ध होता है, जिस प्रकार अग्नि द्वारा तपाए हुए रूप्य (सोने और चांदी) का मल ॥६२॥ [४५१] जो (पूर्वोक्त) गुणों से युक्त है, दुःखों (परीषहों) को (समभावपूर्वक) सहन करने वाला है, जितेन्द्रिय है, श्रुत (शास्त्रज्ञान) से युक्त है, ममत्वरहित और अकिंचन (निष्परिग्रह) है, वह कर्मरूपी मेघों के दूर होने पर, उसी प्रकार सुशोभित होता है, जिस प्रकार सम्पूर्ण अभ्रपटल से विमुक्त चन्द्रमा ॥६३॥ -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इहलौकिक और पारलौकिक उपलब्धियाँ प्रस्तुत तीन गाथाओं (४४९ से ४५१ तक) में इस अध्ययन में उक्त आचार-प्रणिधि के सूत्रानुसार संयमी जीवनयापन करने वाले मुनि को प्राप्त होने वाली इहलौकिक, पारलौकिक उपलब्धियों का वर्णन किया गया है। तीन उपलब्धियाँ (१) कषाय-विषय आदि से अपनी रक्षा करने और कर्मशत्रुओं को हटाने में समर्थ हो जाता है, (२) अग्नितप्तस्वर्ण की तरह पूर्वकृत कर्ममल से रहित हो जाता है, और (३) अभ्रपटलमुक्त चन्द्रमा की तरह कर्मपटलमुक्त सिद्ध आत्मा बन जाता है।" सूरे व सेणाई० पंक्ति का आशय जो साधु तप, संयम एवं स्वाध्याययोग में रत रहता है, वह इन्द्रियों और कषायों की सेना से घिरा होने पर तप आदि खड्ग प्रभृति समग्र शस्त्रास्त्रों से अपनी आत्मरक्षा करने में और कर्म आदि शत्रुओं को परास्त करके खदेड़ने में उसी प्रकार समर्थ होता है, जिस प्रकार समग्र शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित योद्धा शत्रु की चतुरंगिणी विशाल सेना से घिरा होने पर अपनी रक्षा करने और शत्रुओं को खदेड़ने में समर्थ होता है। अथवा जिस प्रकार शस्त्रों से सुसज्जित वीर चतुरंगिणी सेना से घिर जाने पर अपना और दूसरों का संरक्षण करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार जो मुनि तप, संयम, स्वाध्यायादि गुणों से सम्पन्न होता है, वह इन्द्रिय और कषायरूप सेना से घिर जाने पर अपनी आत्मा की और संघ के अन्य साधुओं के आत्मा की पापों से रक्षा करने में समर्थ होता है। ७१. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ.६१ ७२. (क) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.८२५ (ख) जहा कोई पुरिसो चउरंगबलसमन्त्रागताए सेणाए अभिरुद्धो संपन्नाठहो अलं (सरो अ) सो अप्पाणं परं च ताओ संगामाओ नित्थारेउं ति, अलं नाम समत्थो, तहा सो एवंगुणजुत्तो अलं अप्पाणं परं च इंदियकसायसेणाए अभिरुवं नित्थारेउं ति ॥ --जिनदासचूर्णि, पृ. २९३
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy