________________
२८०
दशवैकालिकसूत्र (२) शस्त्र से उपहत (अचित्त) सचित्त। पर बैठने आदि से सीधी पृथ्वी-जीव-विराधना होती है और कंबलादि बिछाए बिना अचित्त पृथ्वी पर बैठने से शरीर की उष्मा से उसके निम्न भाग में रहे जीवों की विराधना होती है। शरीर भी धूल से लिप्त हो जाता है। अष्टविध सूक्ष्मजीवों की यतना का निर्देश
४०१. अट्ठ सुहुमाइं पेहाए जाइं जाणित्तु संजए ।
दयाहिगारी भूएसु आस चिट्ठ सए हि वा ॥ १३॥ ४०२. कयराइं अट्ठसुमाइं ? जाइं पुच्छेज संजए ।
इमाइं ताई मेहावी आइक्खेज वियक्खणे ॥ १४॥ ४०३. सिणेहं १ पुष्फसुहुमं २ च पाणुत्तिंगं ३-४ तहेव य ।
पणगं ५ बीयं ६ हरियं ७ अंडसुहुमं ८ च अट्ठमं ॥ १५॥ ४०४. एवमेयाणि जाणित्ता सव्वभावेण संजए ।
अप्पमत्ते जए निच्चं सव्विंदियसमाहिए ॥ १६॥ [४०१] संयमी (यतनावान् साधु) जिन्हें जान कर (ही वस्तुतः) समस्त जीवों के प्रति दया का अधिकारी बनता है, उन आठ प्रकार के सूक्ष्मों (सूक्ष्म शरीर वाले जीवों) को भलीभांति देखकर ही बैठे, खड़ा हो अथवा सोए ॥१३॥
[४०२-४०३] जिन (सूक्ष्मों) के विषय में संयमी शिष्य पूछे कि वे आठ सूक्ष्म कौन-कौन से हैं ? तब मेधावी और विचक्षण (आचार्य या गुरु) कहे कि वे ये हैं
(१) स्नेहसूक्ष्म, (२) पुष्पसूक्ष्म, (३) प्राणिसूक्ष्म, (४) उत्तिंगसूक्ष्म (कीड़ीनगर), (५) पनकसूक्ष्म, (६) बीजसूक्ष्म, (७) हरितसूक्ष्म और (८) अण्डसूक्ष्म ॥१४-१५॥ ___ [४०४] सभी इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष रहित संयमी साधु इसी प्रकार उन (आठ प्रकार के सूक्ष्म जीवों) को सर्व प्रकार से जान कर सदा अप्रमत्त रहता हुआ (इनकी) यतना करे ॥१६॥ ..
विवेचन आठ प्रकार के सूक्ष्म जीव, उनके उत्पत्ति-स्थान और यतनानिर्देश प्रस्तुत ४ सूत्रगाथाओं (४०१ से ४०४) में अष्टविध सूक्ष्मों का स्वरूप ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनकी हिंसा का परित्याग करने तथा उनकी यतना करने का निर्देश किया गया है।
अष्टविध सूक्ष्मों की व्याख्या (१) स्नेहसूक्ष्म अवश्याय (ओस), हिम (बर्फ), कुहासा (धुंध), ओले और उद्भिद जलकण, इत्यादि सूक्ष्म जल को स्नेहसूक्ष्म कहते हैं। (२) पुष्पसूक्ष्म-बड़ और उम्बर (गूलर) आदि के फूल या उन जैसे वर्ण वाले फूल, जो अत्यन्त सूक्ष्म होने से सहसा सम्यक्तया दृष्टिगोचर नहीं होते। (३) प्राण (प्राणी) सूक्ष्म अणुद्धरी कुंथुवा आदि सूक्ष्म प्राणी जो चलने पर ही दिखाई देते हैं, स्थिरावस्था में सूक्ष्म होने से ५. (क) असत्थोवहता सुद्धपुढवी, सत्थोवहता वि कंबलियातीहिं अणंतरिया ।
-अ. चूर्णि, पृ. १८५ (ख) तत्थ सचित्तपुढवीए गायउण्हाए विराधिजइ, अचित्ताए एआए....हेठिल्ला वा तण्णिस्सिता सत्ता उण्हाए विराधिजति।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २७५