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________________ दशवैकालिकसूत्र [३९६] मुनि जलते हुए अंगारे, अग्नि, त्रुटित अग्नि की ज्वाला ( चिनगारी), ज्योति - सहित अलात (जलती हुई लकड़ी) को न प्रदीप्त करे (सुलगाए), न हिलाए (न परस्पर घर्षण करे या स्पर्श करे) और न उसे बुझाए ॥८ ॥ [३९७] (साधु या साध्वी) ताड़ के पंखे से, पत्ते से वृक्ष की शाखा से अथवा सामान्य पंखे (व्यजन) से अपने शरीर को अथवा बाह्य (गर्म दूध आदि) पुद्गल (पदार्थ) को भी हवा न करे ॥ ९ ॥ [३९८] (अहिंसामहाव्रती मुनि) तृण ( हरी घास आदि), वृक्ष, (किसी भी वृक्ष के) फल तथा ( किसी भी वनस्पति के) मूल का छेदन न करे, (यही नहीं) विविध प्रकार के सचित्त बीजों (तथा कच्ची अशस्त्रपरिणत वनस्पतियों के सेवन) की मन से भी इच्छा न करे ॥ १० ॥ २७८ [३९९] (मुनि) वनकुंजों में, बीजों पर, हरित ( दूब आदि हरी वनस्पति) पर तथा उदक, उत्तिंग और पनक (काई) पर खड़ा न रहे ॥ ११ ॥ [४०० ] ( मुनि) वचन अथवा कर्म (कार्य) से त्रस प्राणियों की हिंसा न करे। समस्त जीवों की हिंसा से उपरत (साधु या साध्वी) विविध स्वरूप वाले जगत् (प्राणिजगत) को (विवेकपूर्वक) देखे ॥ १२ ॥ विवेचन — अहिंसा के आचार को जीव में चरितार्थ करने के उपाय — प्रस्तुत ११ सूत्रगाथाओं (३९० से ४००) में जीवों के विविध प्रकार और उनकी विविध प्रकार से मन-वचन-काया से तथा कृत-कारित अनुमोदन से होने वाली हिंसा से बचने और अहिंसा को साधुजीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में क्रियान्वित करने का निर्देश किया है। 'सबीयगा' आदि शब्दों के विशेषार्थ — सबीयगा —— बीजपर्यन्त — जिनदासचूर्णि के अनुसार - 'सबीज' शब्द के द्वारा वनस्पति के बीजपर्यन्त दस भेदों का ग्रहण किया गया है— मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । अच्छणजोएण - 'क्षण' का अर्थ हिंसा है। अक्षण अर्थात् — अहिंसा । 'योग' का अर्थ सम्बन्ध या व्यापार है। इसका भावार्थ है—अहिंसामय वृत्ति (व्यापार) पूर्वक । भित्ति : दो अर्थ-भींत और पर्वतादि की दरार अथवा नदीतट । अर्थात् नदी के किनारे जो मिट्टी की ऊंची दीवार बन जाती है, वह भित्ति है। सीओदगं—–शीतोदक—भूमि के आश्रित सचित्त जल । वुटुं वृष्ट वृष्टि का जल, अन्तरिक्ष का जल । उसिणोदकं तत्तफासुयं—–उष्णोदक—–—तप्तप्रासुक— उष्ण जल तो तप्त भी होता है और प्रासुक भी, फिर उष्णोदक के साथ तप्तप्रासुक विशेषण लगाने का प्रयोजन यह है कि सारा उष्णोदक तप्त व प्रासुक नहीं होता, किन्तु पर्याप्त मात्रा में उबल जाने पर ही वह तप्तप्रासुक होता है, इसलिए उष्णोदक के साथ तप्त - प्रासुक विशेषण लगाया गया है। पूर्णमात्रा में उबाला हुआ उष्णोदक ही मुनियों के लिए ग्राह्य है। ३. (क) सबीयगहणेण मूलकंदादि - बीजपज्जवसाणस्स पुव्वभणितस्सं दसप्पगारस्स वणप्फतिणो गहणं । — जिनदासचूर्णि, पृ. २७४ (ख) छणणं छण : क्षणु हिंसायमिति एयस्स रूवं । ण छणः अछणः, अहिंसणमित्यर्थः । जोगो सम्बंधो । अच्छणेण अहिंसणेण जोगो जस्स सो अच्छणजोगो तेण । - अ. चू., पृ. १८५ — हारि. टीका, पत्र २२८ (ग) अक्षणयोगेन—–— अहिंसाव्यापारेण । (घ) भित्तिमादी णदितडीतो जवोवद्दलिया सा भित्ती भन्नति । सुद्धपुढवी नाम न सत्थोवहता, असत्थोवहयावि जाणो वत्थंतरिया सा सुद्धपुढवी भण्णइ । सीतोदगगहणेण उदयस्स गहणं कयं । (ङ) वुटुं तक्कालवरिसोदगं । —जिनदासचूर्णि, पृ. २७६ (च) 'तं' पुणा उण्होदगं जाहे तत्तफासुयं भवति, ताहे संजतो पडिग्गाहिज्जत्ति । अ. चू., पृ. १८५ —जिनदासचूर्णि, पृ. २७६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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