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________________ २५० दशवैकालिकसूत्र तक) में चारों भाषाओं का स्वरूप भलीभांति जान कर उनमें से वक्तव्य, अवक्तव्य के विवेक का प्रतिपादन किया है। १. सत्याभाषा—वह भाषा जो वस्तुस्थिति का यथार्थ परिबोध हो जाने के पश्चात् विचारपूर्वक बोली जाती है। २. असत्याभाषा वह है, जो वस्तुस्थिति का पूर्ण भान हुए बिना ही क्रोधादि कषाय-नं - नोकषायवश अविचार से बोली जाती है। यह वक्ता-श्रोता दोनों का अकल्याण करती है । ३. सत्यामृषा (मिश्र) भाषा वह है, जिसमें सत्य और असत्य दोनों का मिश्रण हो। किसी को सोते-सोते सूर्योदय के बाद कुछ देर हो गई, उससे कहा – दिखता नहीं, 'दोपहर हो गया'। यह भी असत्यभाषा के समान ही है। ४. असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा वह है, जो जनता में सामान्यतया प्रचलित होती है, जिसका श्रोता पर अनुचित प्रभाव नहीं पड़ता । हेयोपादेय - विवेक — इन चार प्रकार की भाषाओं में से असत्य तथा सत्या - मृषा तो सर्वथा वर्जनीय हैं, शेष दो भाषाओं में विवेक करना चाहिए। जो भाषा सत्य तो है, किन्तु हिंसादि पाप को उत्तेजित करती है, वह नहीं बोलनी चाहिए। जैसे—– किसी कसाई के पूछने पर सच कह देना कि गाय इधर गई है। अथवा जो असत्याऽमृषा (व्यवहार भाषा) भी पापकारी हो, जैसे— "मिट्टी खोद डालो, इन्हें मार डालो " आदि नहीं बोलनी चाहिए। सत्य भाषा अगर पापकारी नहीं है, मधुर है, कर्कश - कठोर, भयावह नहीं है, तथा संदेहरहित है, तो विचारपूर्वक बोली जा सकती है। कर्कश एवं कठोर भाषा सत्य होते हुए भी दूसरे के चित्त को आघात पहुंचाने वाली होने से बोलने योग्य नहीं । कठोर भाषा का परिणाम वैर और हिंसक प्रतीकार उत्पन्न करता है । अतः साधु के मुंह से निकलने वाली वाणी मधुर और सत्य होनी चाहिए।' विणयं— (१) भाषा का वह प्रयोग, जिससे धर्म का अतिक्रमण न हो, विनय कहलाता है । (२) भाषा का शुद्ध प्रयोग विनय है, (३) 'विजयं सिक्खे' : विजय अर्थात् निर्णय सीखे। तात्पर्य यह है कि बोलने योग्य भाषाओं शुद्धप्रयोग का निर्णय सीखे। अथवा वचनीय और अवचनीय रूप का निर्णय (विजय) सीखे। अथवा सत्य और व्यवहारभाषा का निर्णय करना चाहिए कि उसे क्या और कैसे बोलना या नहीं बोलना ?३ जाय बुद्धेहिं णाइन्ना — आशय — प्रस्तुत गाथा संख्या ३३३ के तृतीय चरण में 'य' शब्द से 'असत्यामृषा' का अध्याहार किया गया है । वृत्तिकार ने इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार किया है—' तथा सत्या और असत्यामृषा जो बुद्धों अर्थात्— तीर्थंकर—गणधरों द्वारा अनाचरित है।' आशय यह है कि जो सत्यभाषा या असत्यामृषा (आमंत्रणी या आज्ञापनी आदि रूपा सावद्य होने के कारण ) तीर्थंकरों या गणधरों द्वारा अनाचरणीय बतलाई गई है, उस भाषा को १. २. ३. दशवैकालिकसूत्रम् पत्राकार ( आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ६३५ -६३६ (क) वही, पत्र ६३७-६३९ (ख) बुद्धैस्तीर्थकरगणधरैरनाचारिता असत्यामृषा आमंत्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा । (क) विनयं शुद्धप्रयोगं, विनीयतेऽनेन कर्मेति कृत्वा । (ख) जं भासमाणो धम्मं णातिक्कमइ एसो विणयो भण्णइ । (ग) विजयो समाणजातियाओ णिकरिसणं....। तत्थ वयणीयावयणीयत्तेण विजयं सिक्खे | — हारि. वृत्ति, पत्र २१३ — हारि. वृत्ति, पत्र. २१३ —जिनदासचूर्णि, पृ. २४४ -अ. चू., पृ. १६४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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