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छठा अध्ययन : महाचारकथा
विशेषता का प्रतिपादन किया गया है। विशेषण ये हैं— (१) भीम—कठिन कर्म-शत्रुओं को खदेड़ने में यह आचार भयंकर है, कर्ममल धोने के लिए रौद्र है। (२) दुरधिष्ठित — दुर्बल (कायर) आत्माओं के लिए इस प्रकार का धारण (स्वीकार) करना शक्य नहीं है अतः कायर पुरुषों के लिए यह आचार दुर्धर है । (३) सकल — सम्पूर्ण । (४) लोक में परम दुश्चर यह आचार समग्र जीवलोक में पालन करने में अत्यन्त दुश्चर- दुष्कर है। (५) विपुलस्थान के भाजन निर्ग्रन्थों का आचार — यह आचार केवल मोक्षस्थान को प्राप्त करने में योग्यतम निर्ग्रन्थों का है । (६) सभी आचारों में अद्वितीय तथा सर्वकालानुपम —- जैन निर्ग्रन्थाचार के सदृश अन्यमतीय आचार नहीं है, न हुआ, न होगा।
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सखुड्डगवियत्ताणं० आदि पदों के अर्थ और व्याख्या — खुड्डग - क्षुद्रक का अर्थ है—–बालक और वियत्त—— व्यक्त का अर्थ है –वृद्ध, अर्थात् सबाल-वृद्ध । वाहियाणं व्याधित। रोगग्रस्त अथवा स्वस्थ, किसी भी अवस्था में क्यों न हों, जो भी गुण अर्थात् आचार - गोचर के नियम हैं, उन्हें अखण्ड और अस्फुटित रूप से पालन करना या धारण करना चाहिए। अखण्ड का अर्थ है— देश (आंशिक) विराधना न करना, अफुडिया (अस्फुटित) का अर्थ है— पूर्णत: (सर्वथा ) विराधना न करना । निष्कर्ष यह है कि इन आचार गुणों का सभी अवस्थाओं के साधुसाध्वीवर्ग के लिए अखण्ड और अस्फुटित रूप से धारण- पालन करना अनिवार्य है। इन आचार-नियमों का पालन देशविराधना और सर्वविराधना से रहित करना चाहिए।"
निर्ग्रन्थता से भ्रष्टता का कारण — सूत्रगाथा २७० में किसी भी आचारस्थान की विराधना निर्ग्रन्थता से परिभ्रष्टता का कारण बताया गया है। इसका कारण है कि जब कोई व्यक्ति किसी मौलिक आचार - नियम का भंग या उल्लंघन करता है, तब वह अज्ञान और प्रमाद से युक्त हो जाता है। अज्ञान और प्रमाद से युक्त होने अथवा चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण मूढ और अज्ञ बना हुआ साधु साधुता से स्वत: पतित और भ्रष्ट हो जाता है । ११ प्रथम आचारस्थान : अहिंसा
९.
१०.
२७१. तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं ।
अहिंसा निउणाx दिट्ठा, सव्वभूएस संजमो ॥ ८ ॥ २७२. जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा ।
तं जाणमजाणं वा, न हणे, न हणावए ॥ ९ ॥ २७३. + सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं, न मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ १० ॥
(क) दशवै. वही, पृ. ३१५ - ३१६
(ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. ७८
(क) सह खुड्डगेहिं सखुड्डगा, वियत्ता (व्यक्ताः) नाम महल्ला, , तेसिं, बालबुड्डाणं तिवृत्तं भवइ ।
२२१
(ख) अखण्डा देशविराधनापरित्यागेन, अस्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन ।
११. दशवै. आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पृ. ३१९
पाठान्तर—
x निउणं । + सव्वजीवा 10 पाणवहं ।
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—जिनदासचूर्णि, पृ. २१६
-हा. वृत्ति, पत्र १९५-१९६