SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा २०७ हुआ याचना न करे। यह पाठ भी संगत प्रतीत होता है, क्योंकि 'पूर्व-पश्चात् - -संस्तव' नामक एषणादोष इसी अर्थ को द्योतित करता है । आचारचूला और निशीथसूत्र में इसी पाठ का समर्थन मिलता है। २९ वन्दन न करने वाले पर कोप और वन्दन करने पर गर्व न करे—ये दोनों दोष भिक्षाजीवी साधु में नहीं होने चाहिए। कोप से क्षमाधर्म का और गर्व से मार्दव धर्म का नाश होता है। साधु को यही चिन्तन करना चाहिए कि किसी के वन्दना करने या न करने से साधु को कोई लाभ नहीं है, उसके कर्म नहीं कट जाएंगे, न मोक्ष प्राप्त होगा । वन्दना करने से कुछ लाभ है तो गृहस्थ को है। अतः साधु को वन्दना करने या न करने वाले दोनों पर समभाव रखना चाहिए । २० सामण्णमचिन भगवत्प्ररूपित सूत्रों के अनुसार चलने से साधु-साध्वी श्रामण्य ( श्रमणधर्म ) में स्थिर रहते हैं । अथवा इन जिनाज्ञाओं का अनुसरण करने वाले साधु का साधुत्व अखण्ड रहता है। निष्कर्ष यह है कि साधु आत्मगुणों से बाह्य इन विभावों या परभावों में न उलझ कर स्वभाव में स्थिर रहे । ३१ स्वादलोलुप और मायावी साधु की दुर्वृत्ति का चित्रण और दुष्परिणाम २४४. सिया एगइओ लद्धुं लोभेण विणिगूहइ । मा मेयं दाइयं संतं दट्ठूणं सयमायए ॥ ३१॥ २४५. अत्तट्ठ गुरुओ लुद्धो, बहुं पावं पकुव्वई । दुत्तसओ य से होड़, निव्वाणं च न गच्छई ॥ ३२ ॥ २४६. सिया एगइओ लद्धुं विविहं पाण-भोयणं । भगं भद्दगं भोच्चा, विवण्णं विरसमाहरे ॥ ३३ ॥ २४७. जाणंतु ता इमे समणा आययट्ठी अयं मुणी । संतुट्ठो सेवई पंतं, लूहवित्ती सुतोसओ ॥ ३४॥ २४८. पूयणट्ठी जसोकामी माण - सम्माणकामए । बहुं पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वइ ॥ ३५ ॥ २९: (क) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २८० (ख) दशवै. ( आचारमणिमंजूषा टीका), भग १, पृ. ५२३-५२४ (ग) पाठविशेषो वा 'वंदमाणो न जाएज्जा ।' (घ) जिनदासचूर्णि, पृ. २०० (ङ) 'नो गाहवाई वंदिय-वंदिय जाएज्जा, नो व णं फरुसं वएज्जा ।' ३०. (क) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म. ), पृ. २८१ (ख) दशवै. आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. ५२५ ३१. (क) अन्वेषमाणस्य भगवदाज्ञामनुपालयतः श्रामण्यमनुतिष्ठति अखण्डमिति । (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २८१ O पाठान्तर — 'अनट्ठा - गुरुओ ।' -अ. चू., पृ. १३२ - आचारचूला, १/६२, निशीथ २/३८ — हारि. वृत्ति, पत्र. १८६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy