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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा
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दीनता, स्तुति एवं कोप आदि का निषेध
२३९. अदीणे वित्तिमेसेज्जा, न विसीएज पंडिए ।
अमुच्छिओ भोयणम्मि मायन्ने एसणारए ॥ २६॥ २४०. बहुं परघरे अत्थि, विविहं खाइम-साइमं ।
न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज परो न वा ॥ २७॥ २४१. सयणासण-वत्थं वा भत्त-पाणं व संजए ।
अदेंतस्स न कुप्पेज्जा, पच्चक्खे वि य दीसओ ॥ २८॥ २४२. इत्थियं पुरिसं वा वि डहरं वा महल्लगं ।
वंदमाणं न जाइज्जा नो य णं फरुसं वए ॥ २९॥ २४३. जे न वंदे, न से कुप्पे, वंदिओ न समुक्कसे ।
एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्ठई ॥ ३०॥ [२३९] विवेकशाली (पण्डित) साधु दीनता से सर्वथा रहित होकर वृत्ति (भिक्षा) की एषणा करे। (भिक्षा . न मिले तो) विषाद न करे। (सरस) भोजन (मिलने पर उस) में अमूच्छित (अनासक्त) रहे। मात्रा को जानने वाला मुनि (आहार-पानी की) एषणा (एषणात्रय) में रत रहे ॥ २६ ॥
[२४०] गृहस्थ (पर) के घर में अनेक प्रकार का प्रचुर खाद्य तथा स्वाद्य आहार होता है, (किन्तु न देने पर) पण्डित मुनि (उस पर) कोप न करे, परन्तु ऐसा विचार करे कि यह गृहस्थ (पर) है, (यह) दे या न दे, इसकी इच्छा ॥ २७॥
[२४१] संयमी साधु प्रत्यक्ष (सामने) दीखते हुए भी शयन, आसन, वस्त्र, भक्त और पान न देने वाले पर क्रोध न करे ॥ २८॥ . .
[२४२] (निर्ग्रन्थ श्रमण) स्त्री या पुरुष, बालक या वृद्ध वन्दना कर रहा हो, तो उससे किसी प्रकार की याचना न करे तथा आहार न दे तो उसे कठोर वचन भी न कहे ॥ २९॥
[२४३] जो वन्दना न करे, उस पर कोप न करे, (और राजा, नेता आदि कोई महान् व्यक्ति) वन्दना करे तो (मन में) उत्कर्ष (अहंकार) न लाए—(गर्व न करे)। इस प्रकार भगक्दाज्ञा का अन्वेषण करने वाले मुनि का श्रामण्य (साधुत्व) अखण्ड रहता है ॥ ३०॥
विवेचन–भिक्षाचर्या में श्रमणत्व का ध्यान रखे प्रस्तुत सूत्रगाथाओं (२३९ से २४३ तक) में भिक्षाचर्या करते समय साधु को क्षमा, मार्दव, आर्जव, अदैन्य, मन-वचन-काय-संयम, तप, त्याग आदि श्रमणधर्मों (श्रमणत्व को अखण्ड रखने वाले गुणों) को सुरक्षित रखने का निर्देश किया गया है। २६. (घ) ....णो णीयाणि अतिक्कमेज्जा, किं कारणं ? दीहा भिक्खारिया भवति, सुत्तत्थपलिमंथो य जडजीवस्स य
अण्णे न रोयंति। जे ते अतिक्कमिजंति, ते अप्पत्तियं करेंति, जहा परिभवति एस अम्हेत्तिं, पव्वइयो वि जातिवायं ण मुयति। जातिवाओ य उववूहितो भवति।'
-जिनदास चूर्णि, पृ. १९९