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________________ पंचम अध्ययन :पिण्डैषणा १९१ किया है। भोजन प्रारम्भ करते समय जिस पात्र में भोजन करना हो, वह आलोक-भाजन (जिसका मुंह चौड़ा या खुला हो, ऐसा पात्र) हो, ताकि आहार करते समय कोई जीव-जन्तु हो तो भलीभांति देखा जा सके। दूसरा, भोजन का विवेक बताया गया है-भोजनकणों को नीचे न गिराते हुए या इधर-उधर न बिखेरते हुए भोजन करे। चपचप करते हुए, बिना चबाए, हड़बड़ी में या अन्यमनस्क होकर अशान्तभाव से भोजन न करे। __ परिभोगैषणा के पांच दोषों को वर्जित करे—परिभोगैषणा के पांच दोष हैं, जिन्हें मांडले के पांच दोष कहते हैं। वे इस प्रकार हैं—(१) संयोजना-नीरस आहार को सरस बनाने के लिए तत्संयोगीय वस्तु मिला कर खाना। (२) प्रमाण-प्रमाण से अधिक भोजन करना। अधिक मात्रा में भोजन करने से आलस्य, निद्रा, प्रमाद, स्वाध्याय कार्यक्रम-भंग आदि अनिष्ट उत्पन्न होते हैं। (३) अंगार–सरस, स्वादिष्ट भोजन या दाता की प्रशंसा करना, स्वाद से प्रेरित होकर मूर्छावश खाना। (४) धूम नीरस आदि प्रतिकूल आहार की निन्दा करना, उसे द्वेष, क्रोध और घृणापूर्वक खाना। (५) कारण का अर्थ है–साधु को भोजन करने के जो ६ कारण बताए हैं, उनमें से कोई भी कारण न होने पर भी आहार करना। इन दोषों से बचने के लिए यहां कहा गया है— जेज्जा दोसवजिये।५ 'अन्नद्वपउत्तं' आदिशब्दों के विशेषार्थ अनट्ठपउत्तं : तीन अर्थ (१) अन्य गृहस्थ के लिए प्रयुक्तप्रकृत, परकृत। (२) केवल भोजन के प्रयोजन के लिए प्रयुक्त। (३) अन्य मोक्ष के निमित्त आहार करना भगवान् द्वारा प्रोक्त है।९६ विरसं—जिसका रस बिगड़ गया हो या सत्व नष्ट हो गया हो। जैसे—बहुत पुराने काले या ठंडे चावल। सूइयं-असूइयं : दो रूप : दो अर्थ (१) सूपित —दाल आदि व्यञ्जनयुक्त खाद्य वस्तु, असूपित—व्यंजनरहित पदार्थ। (२) सूचित—कह कर दिया हुआ। असूचित—बिना कहे दिया हुआ। उल्लं-सुक्कं : आर्द्र-शुष्क बघार सहित साग या दाल प्रधानमात्रा में हो वह आई और बघार (छौंक) रहित शाक शुष्क है। मंथु कुम्मासंमन्थु : दो अर्थ (१) बेर का चूर्ण, (२) बेर, जौ आदि का चूर्ण। कुम्मास—जौ से बना हुआ अथवा पके हुए उड़द से निष्पन्न। ___ अप्पं पि बहु फासुअं: दो विशेषार्थ—(१) थोड़ा होते हुए भी प्रासुक एवं एषणीय होने से बहुत (प्रभूत) है। (२) अल्प रसादि से हीन होते हुए भी मेरे लिए प्रासुक (निर्जीव) होने से बहुत सरस है दुर्लभ है। (३) टीका के अनुसार प्रासुक होते हुए भी यह तो बहुत थोड़ा है, इससे क्या होगा ? अथवा प्रासुक बहुत होते हुए भी नि:सार है, रद्दी है, इस प्रकार कह कर निन्दा नहीं करनी चाहिए।८ ९४. तं पुणं कंटऽटिमक्खितापरिहरणत्थं 'आलोगभायणे' पगासविउलमुहे वल्लिकाइए । -अग.चू., पृ. १२३ ९५. (क) भगवतीसूत्र ७/१/२१-२४ (ख) 'वेयण-वेयावच्चे, इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छठें पुण धम्मचिंताए ।' -उत्तराध्ययन अ. २६/३२ ६. (क) 'अण्णट्ठा पउत्तं-परकडं, अहबा भोयणत्थे पओए एतं लद्धं अतो तं ।' -अ. चू., पृ. १८४ (ख) 'अण्णो मोक्खो तण्णिमित्तं आहारेयव्वंति ।' -जिनदासचूर्णि, पृ. १९० ९७. अ. चू., पृ. १२४, जिनदासचूर्णि, पृ. १९०, हारि. वृत्ति, पत्र १८०-१८१ ९८. (क) फासुएसणिज्जं दुल्लभं ति अप्पमवि तं पभूतं, तमेव रसादिपरिहीणमवि अप्पमवि....। –अ. चू., पृ. १२४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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