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________________ पंचम अध्ययन :पिण्डैषणा . १८९ है, वह चाहे) तिक्त (तीखा) हो, कडुआ हो, कसैला हो, अम्ल (खट्टा) हो, मधुर (मीठा) हो या लवण (खारा) हो, संयमी (साधु या साध्वी) उसे मधु-घृत की तरह सन्तोष के साथ खाए ॥ १२८॥ [२११-२१२] मुधाजीवी भिक्षु (एषणाविधि से) प्राप्त किया हुआ (आहार) अरस (नीरस) हो या सरस, व्यञ्जनादि से युक्त हो अथवा व्यञ्जनादि से रहित, आर्द्र (तर) हो, या शुष्क, बेर के चून का भोजन हो अथवा कुलथ या उड़द के बाकले का भोजन हो, उसकी अवहेलना (निन्दा या बुराई) न करे, किन्तु मुधाजीवी साधु, मुधालब्ध एवं प्रासुक आहार का, चाहे वह अल्प हो या बहुत, (संयोजनादि पंच मण्डल-) दोषों को छोड़ कर समभावपूर्वक सेवन करे ॥ १२९-१३०॥ विवेचनभिक्षाप्राप्त आहार-परिभोग से पहले की शास्त्रीय विधि–प्रस्तुत १० सूत्र गाथाओं (२०० से २०९ तक) में गृहस्थ के यहां से भिक्षा में प्राप्त आहार का विशोधन, प्रतिक्रमण, आलोचन, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, आहार-ग्रहणार्थ निमंत्रण, तदनन्तर प्रकाशित पात्र में आहार-सेवन की विधि का सुन्दर निरूपण किया गया है। स्थान-प्रतिलेखना-उपाश्रय (या धर्मस्थान) में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम भोजन करने के स्थान की भलीभांति देखभाल तथा रजोहरण से सफाई करनी चाहिए, भोजन करने का स्थान कैसा होना चाहिए ? इसके विषय में पूर्वगाथाओं में कहा जा चुका है। उपाश्रयप्रवेश का तात्पर्यार्थ सर्वप्रथम रजोहरण से चरण-प्रमार्जन करते हुए तीन बार 'निसीहि' (मैं आवश्यक कार्य से निवृत्त हो गया हूं) बोले, फिर गुरु के समक्ष आकार करबद्ध होकर 'णमो खमासमणाणं' बोले। इस सारी विधि के लिए यहां कहा गया है—'विणएण पविसित्ता' विनयपूर्वक प्रवेश करके। भिक्षा-शुद्धि का क्रम-गुरु के निकट आकार ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करे, अर्थात् -गमनागमन में जो भी दोष लगे हों, उनका मन ही मन ईर्यापथिक सूत्र के आश्रय से चिन्तन करे। जिनदास महत्तर कायोत्सर्ग में अतिचारों का (जिस क्रम से लगे हों, उस क्रम से) चिन्तन करने के बाद 'लोगस्स' (जिनस्तुतिपाठ) के चिन्तन का निर्देश देते हैं। कायोत्सर्ग नमस्कारमन्त्रोच्चारणपूर्वक पूर्ण करने के साथ ही सरल और बुद्धिमान् भिक्षु अनुद्विग्न होकर अव्यग्र (दूसरों से वार्तालाप या अन्य चिन्तन न करता हुआ) चित्त से आलोचना करे। ८९. (क) ओघनियुक्ति गाथा ५०९ (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी) (ग) “विणओ नाम पविसंतो णिसीहियं काऊण 'नमो खमासमणाणं' ति भणंतो जति से खणिओ हत्थो, एसो विणओ भण्णइ ।' ___-जिनदास चूर्णि, पृ. १८८ (घ) “णिक्खमण-पवेसणासु विणओ पउंजियव्यो ।' -प्रश्नव्याकरण सं. ३, भा. ५ ९०. आवश्यक. ५/३ ९१. (क) 'ताहे लोगस्सुजोयगरं कड्ढिऊण तमतियारं आलोएइ ।' -जिनदासचूर्णि, पृ. १७८ (ख) 'अव्वक्खित्तेण चेतसा नाम तमालोयतो अण्णेण केणइ समं न उल्लावइ, अवि वयणं वा अन्नस्स न देई ।' -जिनदासचूर्णि, पृ. १८० (ग) अव्याक्षिप्तेन चेतसा अन्यत्रोपयोगमगच्छतेत्यर्थः । -हारि. वृत्ति, पत्र १७९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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