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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा १७७ से मिश्रित हो सकते हैं। इन सबसे मिश्रित आहार सचित्त-संस्पृष्ट होने से पूर्ण अहिंसक के लिए ग्राह्य नहीं है।९ उत्तिंग एवं पनक : अर्थ और दोष का कारण उत्तिंग का अर्थ है कीड़ीनगर और पनक का अर्थ हैकाई या लीलण-फूलण। इन दोनों पर रखा हुआ किसी भी प्रकार का आहार साधु लेता है तो उसके निमित्त से कीटिकानगरस्थ जीवों तथा काई के जीवों की विराधना होती है। इसलिए इन पर रखा हुआ आहार ग्रहण करने का निषेध किया गया है। निक्षिप्त दोष : व्याख्या एवं प्रकार किसी भी प्रकार के सजीव पृथ्वीकायादि पर रखा हुआ एवं साधु को दिया जाने वाला आहारादि पदार्थ निक्षिप्त दोषयुक्त होता है। निक्षिप्त दो प्रकार का होता है—अनन्तरनिक्षिप्त और परम्परनिक्षिप्त। सचित्त जल में नवनीत आदि का रखना अनन्तरनिक्षिप्त है और चींटी आदि के लग जाने के डर से जलपात्र में घृत, दधि आदि का बर्तन रखना परम्परनिक्षिप्त है। जहां जल, अग्नि एवं वनस्पति आदि से आहार का सीधा सम्बन्ध हो, वहां वह अनन्तरनिक्षिप्त और जहां आहार के बर्तन के साथ जल आदि का सम्बन्ध एक या दूसरे प्रकार से होता हो, वहां वह आहार परम्परनिक्षिप्त दोषयुक्त है। 'निक्षिप्त' ग्रहणैषणा दोष है।" - संघट्टित आदि दोष : अग्निकाय-विराधनाकारक-(१) संघट्टिका साधु को भिक्षा दूं, उतने समय में रोटी जल न जाए, ऐसा सोच कर तवे पर से रोटी को उलट कर या ईंधन को हाथ, पैर आदि से छूकर आहार देना संघट्टित दोष है। (२) उस्सक्किया—भिक्षा दूं, इतने में चूल्हा बुझ न जाए, इस विचार से उसमें ईंधन डाल कर आहार देना उत्ष्वस्क्यं दोष है। (३) ओसक्किया—भिक्षा दूं, इतने में कोई वस्तु जल न जाए, इस विचार से चूल्हे में से ईंधन निकाल कर आहार देना अवष्वस्क्य दोष है। (४) उज्जालिया-नये सिरे से झटपट चूल्हा सुलगाकर ठंडे आहार को गर्म करके देना उज्ज्वलित दोष है, (५) पज्जालिया बार-बार चूल्हे को प्रज्वलित कर आहार बना कर देना प्रज्वलित दोष है। (६) निव्वाविया भिक्षा दूं, इतने में कोई चीज उफन न जाए, इस डर से चूल्हा बुझा कर आहार देना, निर्वापित दोष है। (७) उस्सिंचिया–अग्नि पर रखे हुए एवं अधिक भरे हुए पात्र में से आहार बाहर निकल न जाए, इस भय से बाहर निकाल कर आहार देना उत्सिंचन दोष है। (८) निस्सिंचिया उफान के डर से पानी का छींटा अग्नि पर रखे बर्तन में देकर आहार देना नि:सिंचन दोष है। (९) ओवत्तिया अग्नि पर रखे पात्र को एक ओर झुका कर आहार देना अपवर्तित दोष है। (१०) ओयारिया- साधु को भिक्षा दूं, इतने में जल न जाए इस विचार से अग्नि पर रखे बर्तन को नीचे उतार कर आहार देना अवतारित दोष है। -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ११४ ६९. (क) जिनदास चूर्णि, पृ. १८२ (ख) अगस्त्य चूर्णि, पृ. ११४ ७०.. (क) उत्तिंगो कीडियानगरं । पणओ उल्ली । (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २०१ ७१. निक्खित्तं अणंतरं परम्परं च । ७२. (क) जिनदास चूर्णि, पृ. १८२ (ख) अगस्त्य चूर्णि, पृ. ११५ (ग) हारि. वृत्ति, पत्र १७५ -अगस्त्य चूर्णि, पृ. १२४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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