SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ दशवकालिकसूत्र कुल वह समझा जाना चाहिए, जो मांसाहारी, मद्यविक्रयी, जल्लाद, चाण्डाल, क्रूरकर्मा व्यक्ति का घर हो या जहां खुलेआम मांस पड़ा हो।२९ मामगं मामक : जो गृहपति इस प्रकार से निषेध कर दे कि मेरे यहां कोई साधु-साध्वी भिक्षा के लिए न आए वह मामक गृह कहलाता है। उस घर में भिक्षार्थ प्रवेश करने का निषेध है। अचियत्तकुलं-अप्रीतिकर कुल- जहां या जिस समय (जैसे कि किसी के यहां किसी स्वजन की मृत्यु हो गई हो, या परस्पर उग्र कलह हो रहा हो, उस समय) साधु-साध्वी के भिक्षार्थ जाने से गृहस्थ को अप्रीति उत्पन्न हो, जहां साम्प्रदायिक या प्रान्तीय द्वेषवश या शंकावश गृहस्थ को साधु के प्रति द्वेष पैदा हो, जहां भिक्षा के लिए निषेध तो न हो, किन्तु उपेक्षाभाव हो, साधु के जाने पर कोई भी कुछ न देता हो, ऐसे अप्रीतिकर घर में भिक्षार्थ प्रवेश निषिद्ध बताया है, क्योंकि वहां जाने से मुनि के निमित्त से उस गृहस्थ को संक्लेश उत्पन्न होगा। प्रीतिकरकुल- जिस घर में साधु-साध्वी का भिक्षार्थ जाना-आना प्रिय हो, या जिस घर में भावनापूर्वक साधुवर्ग को दान देने की उत्कण्ठा हो।" शाणी, प्रावार : शाणी (१) सन (पटसन) या अलसी से बनी हुई चादर। प्रावार—(२) सूती रोएंदार चादर (प्रावरण), (३) कम्बल—कई बार गृहस्थ लोग अपने घर के दरवाजे को सन की चादर या वस्त्र से अथवा सूती रोएंदार वस्त्र या कम्बल से ढंक देते हैं और निश्चिन्त होकर घर में खाते-पीते, आराम करते हैं अथवा गृहणियां स्नानादि करती हैं, उस समय बिना अनुमति लिए यदि कोई द्वार पर से वस्त्र को हटा कर या खोल कर अन्दर चला जाता है तो उन्हें बहुत अप्रिय लगता है। प्रवेशकर्ता अविश्वसनीय बन जाता है। कई गृहस्थ तो व्यवहार में अकुशल ऐसे साधु को टोक देते हैं, उपालम्भ भी देते हैं। ऐसे दोषों को ध्यान में रख कर अनुमति लिए बिना ऐसा करने का निषेध किया गया है। साथ ही कपाट, जो कि चूलिये वाला हो तो उसे खोलने में जीवहिंसा की सम्भावना है, क्योंकि उसे खोलते समय वहां कोई जीव बैठा हो तो उसके मर जाने की सम्भावना है। व्यावहारिक असभ्यता भी है।३२ २९. (क) दशवै., वही, पृ. १६३ (ख) 'मा मम घरं पविसंतु त्ति मामकः सो पुण पंतयाए इस्सालुयत्ताए वा ।' -अ. चू, पृ. १०४ (ग) मामक....एतद् वर्जयेत् भण्डनादिप्रसंगात्। -हारि. वृत्ति, पत्र १६६ ३०. (क) 'अचियत्तं अप्पितं, अणिट्ठो पवेसो जस्स सो अच्चियत्तो, तस्स जं कुलं तं न पविसे, अहवा ण चागो (दाणं) ___ जत्थ पवत्तइ, तं दाणपरिहीणं केवलं परिस्समकारी तं ण पविसे।' –अगस्त्य चूर्णि, पृ. १०४ (ख) अचिअत्तकुलम्-अप्रीतिकुलं यत्र प्रविशद्भिः साधुभिरप्रीतिरुत्पद्यते, न च निवारयन्ति कुतश्चिन्निमित्तान्तरात् एतदपि न प्रविशेत् तत्संक्लेशनिमित्तत्वप्रसंगात् ॥ -हारि. वृत्ति, पत्र १६६ ३१. 'चियत्तं इट्ठनिक्खमणपवेसं, चागसंपण्णे वा।' -अ. चू., पृ. १०४ ३२. (क) साणी नाम सणवक्केहिं विजइ, अलसिमयी वा । (ख) कप्पासितो पडो सरोमो पावारतो । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. १-४ (ग) प्रावारः प्रतीतः कम्बलाधुपलक्षणमेतत् । -हारि. वृत्ति, पत्र १६७ (घ) तं काउं ताणि गिहत्थाणि वीसस्थाणि अच्छंति, खायंति पियंति सइरालावं कुव्वंति, मोहंति वा तं नो अवपंगुरेजा। तेसिं अप्पतियं भवइ, जहा एते एत्तिलयं पि उवयारं च याणंति, जहा णावगुणियव्वं । लोगसंववहारबाहिरा
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy