SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४॥ दशवकालिकसूत्र पुरओ जुगमायाए : व्याख्या- भिक्षाचर्या के लिए गमन करते समयं उपयोग रख कर चलना चाहिए, इसी का विधान प्रस्तुत पंक्ति में है। इसका शब्दशः अर्थ है—आगे युगमात्र भूमि देखकर चले। यहां ईर्यासमिति की परिपोषक द्रव्य और क्षेत्र-यतना का उल्लेख किया गया है। जीव-जन्तुओं को देख कर चलना द्रव्ययतना है, जबकि युगमात्र भूमि को देख कर चलना क्षेत्रयतना है। युग के यहां तीन अर्थ किए गए हैं—(१) गाड़ी का जुआ, (२) शरीर और (३) युग–चार हाथ। सब का तात्पर्य लगभग एक ही है। मार्ग में त्रस-स्थावर जीवों की रक्षा का विधान– साधु बिना देखे-भाले अंधाधुंध न चले, लगभग ४ हाथ प्रमाण भूमि को या आगे-पीछे दाए-बांए देखता हुआ चले, ताकि द्वीन्द्रियादि प्राणी, सचित्त मिट्टी, पानी और वनस्पति की रक्षा कर सके। 'बीय हरियाई' आदि पदों का अर्थ- बीज शब्द से यहां वनस्पति के पूर्वोक्त दसों प्रकारों का तथा हरित शब्द से बीजरुह वनस्पतियों (धान्य, चना, जौ, गेहूं आदि) का ग्रहण किया गया है। दगमट्टियं : दो अर्थ— (१) उदक (जल) प्रधान मिट्टी अथवा (२) अखण्डरूप में भीगी हुई सजीव मिट्टी।" किस मार्ग से न जाए, जाए?:शब्दार्थ- ओवायं अवपात–खड्डा या गड्डा, विसमं ऊबड़-खाबड़ऊंचा-नीचा विषम स्थान। खाणुं स्थाणु-ढूंठ, कटा हुआ सूखा वृक्ष या अनाज के डंठल। विजलं—पानी सूख जाने पर जो कीचड़ रह जाता है, वह। पंकयुक्त मार्ग को भी विजल कहते हैं। ऐसे विषम मार्ग से जाने में शारीरिक और चारित्रिक दोनों प्रकार की हानि होती है। गिर पड़ने या पैर फिसल जाने से हाथ, पैर आदि टूटने की सम्भावना है, यह आत्मविराधना है तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा भी हो सकती है, यह संयमविराधना है।१२ संकमेण : जिसके सहारे से जल या गड्ढे को पार किया जाए ऐसा काष्ठ या पाषाण का बना हुआ संक्रम ९. (क) पुरओ नाम अग्गओ...चकारेण सुणमादीण रक्खणट्ठा पासओ वि पिट्ठओ वि उवओगो कायव्वो। -जिन. चूर्णि, पृ. १५८ (ख) जुगं सरीरं भण्णइ। -वही, पृ. १६८ (ग) युगमात्रं च चतुर्हस्तप्रमाणम् प्रस्तावात क्षेत्रम्। -उत्तरा. बृ. वृ., २४/७ (घ) जुगमिति बलिवद्दसंदाणणं सरीरं वा तावम्मत्तं पुरतो । -अ. चू., पृ. ९९ (ङ) दव्वओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खेत्तओ। -उत्तरा. २४/७ १०. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १३७-१३८ १. (क) बीयगहणेणं बीयपज्जवसाणस्स दसभेदभिण्णस्स वणप्फइकायस्स गहणं कयं । —जिन. चू., पृ. १६८ (ख) हरियगहणेण जे बीयरुहा ते भणिता। -अ. चू., पृ. ९९ (ग) प्राणिनो द्वीन्द्रियादीन्। —हारि. टीका, पत्र १६८ (घ) उदकप्रधाना मृत्तिकाः उदकमृत्तिका। -आवश्यक चूर्णि, वृ. १/२/४२ (ङ) दगग्गहणेण आउक्काओ सभेदो गहिओ, मट्टिया गहणेणं जो पुढविक्काओ अडवीओ आणिओ, सन्निवेसे वा गामे वा तस्स गहणं । —जिन. चूर्णि, पृ. १६९ (च) दगमृत्तिका चिक्खलं । -आवश्यक हारि. वृत्ति, पृ. ५७३ १२. (क) हारि. वृत्ति, पत्र १६४ (ख) आत्मसंयमविराधनासंभवात् । —हारि. वृत्ति, पत्र १६४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy