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अपनी सर्वस्व चल-अचल संपत्ति एवं परिवार आदि के ममत्व का परित्याग करके स्व-परकल्याण के मार्ग में जिसने अपनी काया समर्पित कर दी है, वही साधु-साध्वी ऐसी सर्वसम्पत्करी भिक्षा प्राप्त करने के अधिकारी हैं। परन्तु वे कब, किससे, किस विधि से, किस प्रकार का आहार निर्दोष भिक्षा के रूप में प्राप्त कर सकते हैं ? इसका विस्तृत वर्णन इस पंचम अध्ययन के दो उद्देशकों में किया गया है।
भिक्षु को आहारादि जो कुछ प्राप्त करना होता है, वह भिक्षा द्वारा ही प्राप्त करना होता है। ' याचना' को बाईस परीषहों में से एक परीषह माना है । परन्तु भिक्षु को इस परीषह पर विजय प्राप्त करके अहिंसादि की मर्यादा का ध्यान रखते हुए किसी की भावना को ठेस न पहुंचाते हुए, तथा सूक्ष्म जीवों को जरा भी पीड़ा न पहुंचाते हुए आहार के एषणादोषों से बचाव करते हुए पूर्ण विशुद्धिपूर्वक कठोर भिक्षाचर्या करनी चाहिए।'
पिण्डैषणा से सम्बन्धित कुल ४७ दोष माने जाते हैं, जिसमें उद्गम और उत्पादन के १६+१६ =३२ दोष गवैषणासम्बन्धी हैं, तथा १० एषणादोष हैं, जिन्हें ग्रहणैषणा सम्बन्धी दोष कहा जा सकता है। ५ मण्डलदोष हैं, जो परिभोगैषणा सम्बन्धी हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं— सोलह उद्गम (आहारोत्पत्ति) के दोष – (१) आधाकर्म, (२) औद्देशिक, (३) पूतिकर्म, (४) मिश्रजात, (५) स्थापना, (६) प्राभृतिका, (७) प्रादुष्करण, (८) क्रीत, (९) पामित्य, (१०) परिवर्त्त, (११) अभिहत, (१२) उद्भिन्न, (१३) मालापहृत, (१४) आच्छेद्य, (१५) अनिसृष्ट और (१६) अध्यवपूरक (अध्यवतरक) । सोलह उत्पादन (आहारयाचना ) के दोष – (१) धात्री, (२) दूती, (३) निमित्त, (४) आजीव, (५) वनीपक, (६) चिकित्सा, (७) क्रोध, (८) मान, (९) माया, (१०) लोभ, (११) पूर्व - पश्चात् - संस्तव, (१२) विद्या, (१३) मंत्र, (१४) चूर्ण, (१५) योग और (१६) मूलकर्म। एषणा के (साधु और गृहस्थ दोनों से लगने वाले ) दस दोष – (१) शंकित, (२) प्रक्षित, (३) निक्षिप्त, (४) पिहित, (५) संहृत, (६) दायक, (७) उन्मिश्र, (८) अपरिणत, (९) लिप्त और (१०) छर्दित । परिभोगैषणा सम्बन्धी ( भोजन की
समणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं णवकोडिपरिसुद्धे भिक्खे प. तं. ण हणइ, ण हणावइ, हणंतं णाणुजाणइ, ण पयइ, ण पयावेति, पयंतं णाणुजाणति, ण किणति, ण किणावेति, किणंतं णाणुजाणति । —स्थानांग स्था. ९/३०
(क) दशवै. (संतबालजी), पृ. ४२
(ख) दशवै. ( आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. ३७५
(क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १७८ (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. ४२-४३