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________________ १२६ दशवैकालिकसूत्र पक्षियों तक या कीट-पतंगों तक। इसका कारण है उनमें पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीवों के ज्ञान का अभाव। इसीलिए सभी निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी सभी जीवों के ज्ञानपूर्वक क्रिया (दया आदि चारित्रधर्म) का पालन करने की प्रतिपत्ति (मान्यता) में स्थित होते हैं।०९ अज्ञानी : श्रेय और पाप को जानने में असमर्थ— प्रस्तुत में दो पंक्तियों द्वारा अज्ञानी की असमर्थ दशा का वर्णन किया गया है। (१) अन्नाणी किं काही?—इसका तात्पर्य है कि वह अज्ञानी, जिसे जीव-अजीव का बोध नहीं है, उसे यह भान ही नहीं होता कि अहिंसा क्या है, हिंसा क्या है ? या अमुक कार्य करना है, अमुक कार्य नहीं, क्योंकि उससे जीववध होगा, जिसका कटु परिणाम भोगना पड़ेगा। अतः जिसे जीव-अजीव का ज्ञान नहीं, वह अहिंसावादी नहीं हो सकता। अहिंसा का समग्र विचारक हुए बिना अहिंसा का पूर्ण पालन नहीं हो सकता। जिस अज्ञानी को साध्य, उपाय और फल का परिज्ञान नहीं है, वह कैसे श्रेय दिशा में प्रवृत्त होगा.? वह सर्वत्र अन्धे के समान है। उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के निमित्त का अभाव होता है ।१० (२) किंवा नाहीइ छेय-पावगं— अज्ञानी श्रेय हितकर संयम को और पाप अहितकर या असंयम को कैसे जान सकता है ? जिसे जीव और अजीव का ज्ञान नहीं, उसे किसके प्रति, कैसे संयम करना है, या संयम में हित है, असंयम में अहित है, इस तथ्य को भी कैसे समझ सकता है ? जिस प्रकार महानगर में आग लगने पर अंधा (नेत्रविहीन) नहीं जानता कि उसे किस दिशा में भाग निकलना है, उसी प्रकार जीवों के विशेष ज्ञान के अभाव में अज्ञानी यह नहीं जानता कि उसे असंयमरूपी दावानल से कैसे बच कर निकलना है। जो यह नहीं जानता कि क्या हितकर है, कालोचित है, क्या अहितकर है, उसका कुछ करना, आग लगने पर अंधे के दौड़ने के समान होगा.।१११ सोच्चा : व्याख्या सोच्चा का अर्थ है सुन कर। परन्तु क्या सुन कर ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकार के १०९. (क) सव्वसंजता णाणपुव्वं चरित्तधम्म पडिवालेंति । _ -अ. चू., पृ. ९३ (ख) ....साधूणं चेव संपुण्णा दया जीवाजीवविसेसं जाणमाणाणं, ण उ सक्कादीणं जीवाजीवविसेसं अजाणमाणाणं संपुण्णा दया भवइ ति, चिट्ठइ नाम अच्छइ ।....सव्वसंजताणं जीवाजीवादिसु णातेसु सत्तरसविधो संजमो भवइ। -जिनदास चूर्णि, पृ. १६०-१६१ (ग) एवं अनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वकक्रियाप्रतिपत्तिरूपेण, तिष्ठति-आस्ते, सर्वः संयतः प्रव्रजितः । -हारि. वृत्ति, पत्र १५७ ११०. (क) अण्णाणी जीवो, जीवविण्णाणविरहितो सो किं काहिति? -अ. चू., पृ. ९३ (ख) यः पुनः 'अज्ञानी' साध्योपाय-फलपरिज्ञानविकलः सो किं करिष्यति ? सर्वत्रान्धतुल्यत्वात् प्रवृत्ति-निवृत्तिनिमित्ताभावात् । -हारि. वृत्ति, पृ. १५७ (ग) दसवेया० (मुनि नथमलजी), पृ. १६५ १११. (क) "....जहा अंधो महानगरदाहे पलित्तमेव विसमं वा पविसति, एवं छेदपावगमजाणंतो संसारमेवाणुपडति ।" -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९३ (ख) महानगरदाहे नयणविउत्तो ण याणाति, केण दिसाभाएण मए गंतव्वं ति । तहा सो वि अन्नाणी नाणस्स विसेसं अयाणमाणो कहं असंजमदवाओ णिग्गच्छिहिति ? ' –जिन. चूर्णि, पृ. १६१ (ग) 'छेकं' निपुणं हितं कालोचितं, 'पापकं' वा अतो विपरीतमिति । ततश्च तत्करणं भावतोऽकरणमेव। समग्रनिमित्ताभावात् अन्धप्रदीप्त—पलायनघुणाक्षरकरणवत् । —हारि. वृत्ति, पत्र १५७
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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