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________________ दशवैकालिकसूत्र पृथ्वी - विराधना की विभिन्न क्रियाओं का अर्थ आलेखन, विलेखन : पांच अर्थ - (१) एक बार या थोड़ा खोदना, बार-बार या अधिक खोदना, (२) एक बार या थोड़ा कुरेदना, बार-बार या अधिक कुरेदना, (३) लकीर खींचना, (४) विन्यास करना — घिसना अथवा (५) चित्रित करना । घट्टन — चलाना या हिलाना, संघट्टा (स्पर्श) करना । भेदन—भेदन करना, तोड़ना, विदारण करना, दो-तीन आदि भाग करना । ११४ तात्पर्य यह है कि भिक्षु पृथ्वीकायिक जीवों का किसी भी साधन से, किसी भी अवस्था में किसी भी स्थान या समय में मन-वचन-काया से, कृत- कारित - अनुमोदित रूप से विराधन नहीं करता । ४ अकायिक जीवों के विविध प्रकार और अर्थ - उदक : भूमि के आश्रित या भूमि के स्रोतों में बहने वाला भौम जल। ओस—(१) रात्रि में, पूर्वाह्न या अपराह्न में गिरने वाला सूक्ष्म जलकण, या शरदऋतु की रात में मेघ से उत्पन्न स्नेह-विशेष। महिका - शिशिरऋतु में अन्धकारजनक जो तुषार या पाला पड़ता है, उसे महिका, धूमिका (धूंअर, धुंध) या कोहरा कहते हैं। करक—- आकाश से वर्षा के साथ गिरने वाले कठिन उदकखण्डओले । हरतनुक – (१) जिनदासचूर्णि के अनुसार — भूमि को भेद कर ऊपर उठने वाला जलबिन्दु, जो कि सील वाली जमीन पर रखे बर्तन के नीचे दिखाई देता है, (२) भूमि को भेदन कर तृणाग्र आदि पर विद्यमान औद्भिद जलबिन्दु । शुद्धोदक—–अन्तरिक्ष से गिरने वाला पानी । उदकाई— उपर्युक्त जलप्रकार के बिन्दुओं से आर्द्र-गीला शरीर या वस्त्र आदि । सस्निग्ध— जो स्निग्धता - जलबिन्दुरहित आर्द्रता से युक्त हो । ५ ८३. ८४. ८५. (ख) कलिंजेण वा - क्षुद्रकाष्ठरूपेण । (ग) 'सलागा कट्ठमेव घडितगं, अघडितगं कट्टं !' (घ) सलागा घडियाओ तंबाईणं । — जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ (ङ) 'सलागाहत्थओ बहुयरिआयो, अहवा सलागातो घडिल्लियाओ, तासं सलागाणं संघाओ सलागाहत्थो ।' — जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ - हारि. वृत्ति, पत्र १५२ — हारि. वृत्ति, पत्र १५२ - जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ — अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८७ — अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८७ — हारि. वृत्ति, पत्र १५२ — जिन. चू., पृ. १५४ (च) शलाकया- अय: शलाकादिरूपया, शलाकाहस्तेन वा शलाकासंघातरूपेण । (क) 'ईषद् सकृद्वाऽऽलेखनं, नितरामनेकशो वा विलेखनम् ।' (ख) दशवै. ( आचार्य आत्मारामजी म.), पृ. ९२ (ग) आलिहणं नाम ईसिं, विलिहणं विविहं लिहणं । (घ) दशवै. ( आचारमणिमंजूषा टीका), भा. १, पृ. २७५ (ङ) 'घट्टणं संचालणं ।' (च) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी), पृ. ९० (छ) 'भिंदणं भेदकरणं ।' (ज) भेदो - विदारणम् । (झ) भिंदणं दुहा वा तिहा वा करणं (क) दशवै. जिनदासचूर्णि, पृ. १५४ - १५५ — हारि. टीका, पत्र १५२ — अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८७ (ख) अगस्त्यचूर्णि, पृ. ८७-८८ (ग) हारि. वृत्ति, पत्र १५३ (घ) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी ), पृ. ९४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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