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________________ ११२ दशवैकालिकसूत्र भी जल ले लेते हैं, तथा जब भिक्षा नहीं मिलती, तब वे स्वयं पचन-पाचनादि करते-कराते हैं, अथवा कंदमूल आदि स्वयं उखाड़कर ग्रहण तथा उपभोग कर लेते हैं। अतः जो भिक्षावृत्ति के सिवाय अन्य वृत्ति को कदापि स्वीकार नहीं करते, तथा १७ प्रकार के संयम में रत (संयत) हैं, पचन-पाचनादि हिंसादि पापकर्मों से विरत हैं, वे ही वास्तव में भिक्षु-भिक्षुणी हैं। महाव्रत ग्रहण करने के बाद भिक्षुवर्ग किस स्थिति में पहुंचता है, उसका सरल सजीव चित्रण इन विशेषणों में किया गया है। संयत—जो १७ प्रकार के संयम में सम्यक् प्रकार से अवस्थित हो, या जो सब प्रकार से यतनावान् हो। विरत—पापों से निवृत्त या बारह प्रकार के तप में विविध प्रकार से या विशेष रूप से रत। पापकर्मा' शब्द प्रतिहत और प्रत्याख्यात इनमें के प्रत्येक के साथ सम्बन्धित है। प्रतिहतपापकर्मा–जिसने ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में से प्रत्येक को हत किया हो वह । प्रत्याख्यातपापकर्मा जिसने आस्रवद्वार (पापकर्म आने के मार्ग) का निरोध कर लिया हो। निर्ग्रन्थ भिक्षु प्रतिहत-पापकर्मा इसलिए कहलाता है कि वह महाव्रत ग्रहण करने की प्रक्रिया में अतीत के पापों का प्रतिक्रमण, भविष्य के पापों का प्रत्याख्यान और वर्तमान में मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से पापकर्म न करने की प्रतिज्ञा कर चुका है। प्रत्येक परिस्थिति में साधु अकरणीय कृत्य नहीं करता- कई साधक जब कोई देखता हो या परिषद् में हो, तब तो बहुत ही फूंक-फूंक कर चलते हैं, अपनी क्रिया-पात्रता दिखलाते हैं, किन्तु जब कोई न देखता हो, या अकेले में हों, तब वे अपनी त्यागवैराग्य-भावना को ताक में रख देते हैं। अन्तर्दृष्टिपरायण साधु-साध्वी सदैव आत्महित की दृष्टि से चलते हैं। वे गाढ़ कारणवश कभी अपवाद का सेवन करते हैं तो भी उनके मन में पश्चात्ताप होता है और वे प्रायश्चित्त लेकर आत्मशुद्धि भी कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि अध्यात्मरत श्रमण-श्रमणी के लिए दिन हो या रात, एकान्त हो या समूह, शयनावस्था हो या जागरणावस्था वे हर समय, स्थान एवं परिस्थिति में सतर्क ७६. (क) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भा. १, पृ. २६८ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ९२ ७७. (क) 'संजतो एकीभावेण सत्तरसविहे संजमे द्वितो ।' -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८७ (ख) 'संजओ नाम सोभणेण पगारेण सत्तरसविहे, संजमे अविट्ठओ संजतो भवति ।' –जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ (ग) सामस्त्येन यतः-संयतः । —हारि. वृत्ति, पत्र १५२ (घ) 'पावेहित्तो विरतो पडिनियत्तो ।' —अग. चू., पृ. ८७ (ङ) 'अनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः ।' —हारि. वृत्ति, पृ. १८२ (च) पावकम्मसद्दो पत्तेयं पत्तेयं दोसु वि वट्टइ, तं....पडिहयपावकम्मे, पच्चक्खायपावकम्मे य । —जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ ७८. (क) 'तत्थ पडिहयपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अट्ठकम्माणि पत्तेयं पत्तेयं जेण हयाणि, सो पडिहयपावकम्मो ।' -जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ (ख) 'प्रतिहतं स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन ।' -हारि. वृत्ति, पत्र १५२ ७९. (क) 'पच्चक्खाय-पावकम्मो नाम निरुद्धासवदुवारो भण्णति ।' -जिनदास चूर्णि, पृ. १५४ (ख) 'प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः पुनर्वृद्ध्यभावेन पापं कर्म ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः ।' (ग) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. १४७ —हारि. वृत्ति, पत्र १५२ ८०. दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. २७४ ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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