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________________ १०६ दशवकालिकसूत्र समान ही रात्रिभोजन करने वाला भी अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का भागी होता है, इस दृष्टि से रात्रिभोजनत्याग का पालन उतना ही अनिवार्य माना है, जितना कि अन्य महाव्रतों का। रात्रि में भोजन करना, आलोकितपान-भोजन और ईर्यासमिति (भिक्षाटन के लिए देख कर चलने) के पालन में बाधक है, जो कि अहिंसा महाव्रत की भावनाएं हैं, तथा रात्रि में आहार का संग्रह (भोजन को संचित) रखना (सन्निधि) अपरिग्रह की मर्यादा में बाधक है। इन्हीं सब कारणों से रात्रिभोजन का निषेध किया गया है और रात्रिभोजनत्याग को अगस्त्यसिंह चूर्णि में मूलगुणों की रक्षा का हेतु बताया गया है। यही कारण है कि रात्रिभोजनविरमण को मूलगुणों के साथ प्रतिपादित किया गया है। जिनदास महत्तर के मतानुसार—प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का साधुवर्ग क्रमशः ऋजुजड़ और वक्रजड़ होता है, इसलिए वे रात्रिभोजनविरमण व्रत का, महाव्रतों की तरह पालन करें, इस दृष्टि से इसे महाव्रतों के साथ बताया गया है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों का साधुवर्ग ऋजुप्राज्ञ होने से वह रात्रिभोजन को सरलता से छोड़ सकता है, इस दृष्टि से रात्रिभोजन विरमण व्रत को उत्तर गुण माना है। सर्वरात्रिभोजनविरमण व्रत के पालन के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होने से पूर्व साधु-साध्वी वर्ग को इसका चार दृष्टियों से विचार करना आवश्यक है द्रव्यदृष्टि से रात्रिभेजन का विषय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आदि वस्तु-समूह हैं। अशन—उस वस्तु को कहते हैं, जिसका क्षुधानिवारण के लिए भोजन किया जाए, जैसे—चावल, रोटी आदि। पान—उसे कहते हैं जो पिया जाए, जैसे द्राक्षा का पानी, संतरे या मौसम्बी का रस, आम्ररस, इक्षुरस व अन्य सभी प्रकार के पेय आदि। खाद्य-उसे कहते हैं जो खाया जाए, जैसे मोदक, खजूर, सूखे मेवे, पके फल आदि। स्वाध—उसे कहते हैं, जिसका मुखशुद्धि के या मुंह का जायका ठीक रखने के लिए उपयोग किया जाए, जैसे—सौंफ, इलायची, सौंठ आदि। क्षेत्रदृष्टि से उसका विषय मनुष्यलोक है। कालदृष्टि से उसका विषय रात्रि है और भावदृष्टि से—(पूर्वोक्त) चतुर्भंग उसका हेतु है। शेष 'तीन करण, तीन योग से, यावज्जीवन' रात्रिभोजनत्याग की व्याख्या पहले की जा चुकी है। - व्रत-ग्रहण-पालन : केवल आत्महितार्थ– प्रतिज्ञा का यह (अत्तहियट्ठयाए) सूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट है कि साधु-साध्वी वर्ग पूर्वोक्त महाव्रतों का, रात्रिभोजनविरमण व्रत का इहलौकिक-पारलौकिक सुख के लिए, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, प्रशंसा या यशकीर्ति के लिए अथवा किसी अन्य भौतिक लाभ के लिए अंगीकार या पालन नहीं करता, न किसी दैवी, मानुषी या भागवती शक्ति को प्रसन्न करने की दृष्टि से ऐसा करता है, अपितु आत्महित के लिए ही इन महाव्रतों को स्वीकार और पालन करना चाहिए। आत्महित का अर्थ मोक्ष (कर्ममुक्ति) है। इसमें कर्म, जन्म-मरणरूप संसार आदि से मुक्ति, आत्मशुद्धि अथवा आत्मकल्याण या उत्कृष्ट मंगलमय धर्मपालन से आत्मरक्षा आदि का समावेश हो जाता है। आत्महित के विपरीत अन्य किसी उपर्युक्त भौतिक या लौकिक ७१. किं रातीभोयणं मूलगुणः उत्तरगुणः ? उत्तरगुण एवायं । तहावि सव्वमूलगुणरक्खाहेतुत्ति मूलगुणसम्भूतं पढिजति । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८६ ७२. पुरिमजिणकाले पुरिसा उजुजडा, पच्छिमजिणकाले पुरिसा वंकजडा, अतोनिमित्तं महव्वयाण उपरि ठवियं, जेण तं महव्वयमिव मन्त्रंता ण पिल्लेहिंति, मज्झिमगाणं पुण एवं उत्तरगुणेसु कहियं, किं कारणं? जेण ते उज्जुपण्णत्तणेण सुहं चेव परिहरंति । -जिनदास चूर्णि, पृ. १५३ ७३. असिज्जइ खुहितेहिं जं तमसणं जहा कूरो एवमादीति, पिजंतीति, पाणं, जहा—मुद्दियापाणगं एवमाइ, खज्जतीति खादिम, जहा-मोदगो एवमादि, सादिज्जति सादिमं, जहा संठिगुलादि । -जिनदास चूर्णि, पृ. १५२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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