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________________ १०४ दशवकालिकसूत्र अणु (सूक्ष्म ) एवं स्थूल— सूक्ष्म (छोटी)—जैसे एरण्ड की पत्ती या काष्ठ की चिरपट या तिनका आदि। स्थूल—जैसे सोने का टुकड़ा या रत्न आदि। सचित्त एवं अचित्त – पदार्थ तीन प्रकार के हैं सचित्त, अचित्त और मिश्र सचित्त, जैसे मनुष्यादि, अचित्त जैसे कार्षापण आदि, मिश्र जैसे वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित मनुष्य। ___ सर्व-अदत्तादानविरमण : विश्लेषण प्रस्तुत में अदत्तादान के प्रकार बताए हैं, वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से भी अदत्तादान का विचार कर लेना चाहिए—द्रव्यदृष्टि से अदत्तादान का विषय अल्प, बहुत, सूक्ष्म, स्थूल, सचित्त, अचित्त आदि द्रव्य अदत्तादान के विषय हैं। क्षेत्रदृष्टि से इसका विषय ग्राम, नगर, अरण्य आदि स्थान हैं। कालदष्टि से इसका विषय दिन और रात्रि आदि सर्वकाल है। भावष्टि से अल्पमल्य, बहुमूल्य पदार्थ हैं, अथवा लोभ, मोह आदि भाव हैं। इसी तरह पांच प्रकार के अदत्त हैं—देव-अदत्त (देव का या देवाधिदेव तीर्थंकर की आज्ञा से बाह्य), गुरु-अदत्त, राजा-अदत्त, गृहपति-अदत्त और साधर्मि-अदत्त। इन पांच प्रकार के अदत्त में से किसी भी प्रकार का अदत्त मन-वचन-काया से, कृत-कारित-अनुमोदितरूप से लेना अदत्तादान है। उससे विरत होकर गुरुदेव के समक्ष प्रतिज्ञाबद्ध होना सर्व-अदत्तादान-विरमण महाव्रत का स्वीकार सर्व-मैथुनविरमण : विश्लेषण केवल रतिकर्म का नाम ही मैथुन नहीं है, अपितु रति-भाव या रागभाव पूर्वक जीव की जितनी चेष्टाएं हैं, वे सभी मैथुन हैं। इसीलिए शास्त्रकारों ने मैथुन के अनेक भेद किए हैं। चित्त में रतिभाव-कामभाव उत्पन्न करने वाले अनेक कारण हैं। उनमें से दो मुख्य हैं रूप और रूपसहित द्रव्य। रूप के दो अर्थ हैं—(१) निर्जीव वस्तुओं का सौन्दर्य (जैसे मृत शरीर या प्रतिमा आदि) को देख कर, अथवा (२) आभूषणरहित सौन्दर्य को देख कर। रूपसहित द्रव्य के भी दो अर्थ हैं—(१) स्त्री आदि सजीव वस्तु के सौन्दर्य आदि को देख कर। इसके मुख्य तीन प्रकार हैं-देवांगना सम्बन्धी मैथुन (दिव्य), मनुष्य से सम्बन्धित मैथुन (मानुषिक) और पशु-पक्षी आदि तिर्यञ्च के साथ मैथुन (तिर्यञ्चसम्बन्धी)। अथवा (२) आभूषणसहित सौन्दर्य को देखकर होने वाला रूपसहगत मैथुन । इस प्रकार द्रव्यदृष्टि से पूर्वोक्त सचेतन, अचेतन सभी द्रव्य मैथुन के विषय हैं। क्षेत्रदृष्टि से मैथुन का विषय तीनों लोक (ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिग्लोक) हैं, कालदृष्टि से उसका विषय दिन और रात्रि आदि सर्वकाल हैं, और भावदृष्टि से मैथुन का हेतु राग (कामराग, दृष्टिराग, स्नेहराग) और द्वेष है। इसी प्रकार काम (मैथुनभाव) की उत्पत्ति की दृष्टि से ब्रह्मचर्य की नौ बाड़ से विपरीत प्रवृत्ति ६६. 'अप्पं परिमाणतो मुल्लतो वा, परिमाणतो जहा—एगा सुवण्णागुंजा मुल्लतो कवड्डियामुल्लं वत्थु । बहुं परिमाणतो वा मुल्लतो वा । परिमाणतो सहस्सपमाणं, मुल्लतो एकं वेरुलितं । अण्णु-मूलगपत्तादी अथवा कळं कलिचं वा एवमादी, थूलं सुवण्णखोडी वेरुलिया वा उवगरणं ।' -जिनदास चूर्णि, पृ. १४९ ६७. जिनदास चूर्णि, पृ. १४९ ६८. (क) दव्वतो रूवेसु वा रूवसहगतेसु वा दव्वेसु, रूवं-पडिमामयसरीरादि, रूवसहगतं सजीवं । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६८ (ख) .....रूवसहगयं तिविहं भवति, तं.-दिव्वं माणुसं तिरिक्खजोणियं ति । अहवा रूवं भूसणवज्जियं, सहगयं भूसणेण सह । —जिनदास चूर्णि, पृ. १५०
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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