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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका १०१ प्राणातिपात-विरमण : व्याख्या- प्राणातिपात का अर्थ है—प्राणी के दस प्राणों में से किसी भी प्राण का अतिपात—वियोग–विसंयोग करना। शास्त्र में दस प्राण कहे गये हैं "श्रोत्रेन्द्रियबलप्राण, चक्षुरिन्द्रियबलप्राण, घ्राणेन्द्रियबलप्राण, रसनेन्द्रियबलप्राण, स्पर्शेन्द्रियबलप्राण, मनोबलप्राण, वचनबलप्राण, कायबलप्राण, श्वासोच्छ्वासबलप्राण और आयुष्यबलप्राण।" इन दस प्राणों का वियोग करना हिंसा है। अथवा प्राणातिपात का अर्थ है-जीवों को किसी प्रकार दुःख (कष्ट) पहुंचाना। प्राणातिपात के बदले यहां जीवातिपात न कहने का एक कारण यह है कि केवल जीवों को मारना ही अतिपात (हिंसा) नहीं है, किन्तु उनके प्राणों को किसी प्रकार का दुःख पहुंचाना भी हिंसा है। दूसरा कारण यह है कि जीव (आत्मा) का अतिपात (नाश) होता ही नहीं है, वह तो सदा नित्य है, अविनाशी है। अतिपात (वियोग या नाश) केवल प्राणों का होता है और प्राणों के वियोग से ही जीव को अत्यन्त द:ख उत्पन्न होता है, इसलिए 'प्राणातिपात' शब्द का ग्रहण किया गया है। इसी कारण प्रथम महाव्रत का नाम प्राणातिपात-विरमण रखा गया है। सर्व-प्राणातिपात— प्रस्तुत पाठ में सभी प्रकार के प्राणातिपात के सर्वथा त्याग (प्रत्याख्यान) का कथन है। उसमें सर्वप्रथम प्राणियों के ४ मुख्य प्रकार दिये गये हैं—सूक्ष्म, बादर, त्रस और स्थावर । सूक्ष्म वे जीव हैं, जिनके शरीर की अवगाहना अत्यन्त अल्प होती है और बादर (स्थूल) वे जीव हैं, जिनके शरीर की अवगाहना बड़ी होती है। सूक्ष्मनामकर्म के उदय के कारण जो जीव अत्यन्त सूक्ष्म है, उसे यहां ग्रहण नहीं किया गया है। क्योंकि ऐसे सूक्ष्म जीव की काया द्वारा हिंसा संभव नहीं है। स्थूल दृष्टि से सूक्ष्म या स्थूल अवगाहना वाले जीवों को ही यहां सूक्ष्म या बादर कहा गया है। स और स्थावर- ऊपर जो सूक्ष्म और बादर जीव कहे गये हैं, उनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैंत्रस और स्थावर । जो त्रास या उद्वेग पाते हैं, वे त्रस हैं, जो स्थान से विचलित नहीं होते—एक स्थान पर ही अवस्थित रहते हैं, वे स्थावर कहलाते हैं। कुंथु आदि सूक्ष्म त्रस हैं और गाय, बैल आदि बादर त्रस हैं, वनस्पति आदि सूक्ष्म स्थावर हैं और पृथ्वी आदि बादर स्थावर हैं।९ ५७. (क) 'पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास-निःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥' (ख) प्राणा इन्द्रियादयस्तेषामतिपातः प्राणातिपात: जीवस्य महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव । -हारि. वृत्ति, पत्र १४४ ५८. (क) सुहुमं अतीव अप्पसरीरं तं वा, वातं रातीति वातरो महासरीरो ते वा । —अ. चू., पृ. ८१ (ख) सुहुमं नाम जं सरीरावगाहणाए सुठु अप्पमिति, बादरं नाम थूलं भण्णइ । —जिनदास चूर्णि, पृ. १४६ (ग) अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते, न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मः, तस्य कायेन व्यापादनासंभवात् ।। —हारि. टीका, पत्र १४५ (क) तसं वा-'त्रसी उद्वेजने' त्रस्यतीति त्रसः, तं वा, 'थावरो' जो थाणातो ण विचलति तं वा।.....सव्वे पगारा ण हंतव्वा । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८१ (ख) तत्थ जे ते सुहुमा बादरा य ते दुविहा, तं. तसा य थावरा वा । तत्थ तसंतीति तसा, जे एगंमि ठाणे अवट्ठिया चिटुंति ते थावरा भण्णंति ।। —जिनदास चूर्णि, पृ. १४६-१४७ (ग) "सूक्ष्मत्रसः कुन्थ्वादिः स्थावरो वनस्पत्यादिः, बादरस्त्रसो गवादिः, स्थावरः पृथिव्यादिः ।" –हारि. वृत्ति, पत्र १४५
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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