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________________ ८७ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका (४) रसज–दूध, दही, घी, मट्ठा अदि तरल पदार्थ रस कहलाते हैं। उनके विकृत हो जाने पर उनमें उत्पन्न होने वाले छोटे-छोटे जीव रसज कहलाते हैं। (५) संस्वेदज-पसीने के निमित्त से उत्पन्न होने वाले जीव संस्वेदज होते हैं, जैसे जूं, खटमल आदि। सम्मूछिम-शीत, उष्ण आदि बाहरी कारणों के संयोग से या इधर-उधर के आसपास के परमाणुओं या वातावरण से मातृ-पित् संयोग के बिना ही पैदा हो जाते हैं, वे सम्मूछिम या सम्मूछिनज कहलाते हैं। सम्मूछिन कहते हैं—घना होने, बढ़ने या फैलने की क्रिया को। जो जीव गर्भ के बिना ही उत्पन्न होते, बढ़ते और फैलते हैं, वे सम्मूछिनज कहलाते हैं, जैसे टिड्डी, पतंगा, चींटी, मक्खी आदि। (६) उद्भिज- पृथ्वी को फोड़ (भेद) कर जो जीव पैदा होते हैं, वे उद्भिज्ज कहलाते हैं, जैसे—पतंगा, खंजरीट या शलभ आदि। (७) औपपातिक गर्भ और सम्मूछेन से भिन्न देवों और नारकों के जन्म को उपपात कहते हैं, उससे उत्पन्न होने वाले देव और नारक औपपातिक कहलाते हैं। देव शय्या में और नारक कुम्भी में स्वयं उत्पन्न होते हैं। उपपात का अर्थ होता है—अकस्मात् घटित होने वाला—अचानक आ पड़ने वाला। देव और नारक जीव एक ही मुहूर्त में पूर्ण युवा बन जाते हैं, इसलिए अकस्मात् उत्पन्न होने के कारण इन्हें औपपातिक कहा जाता है।३९ सव्वे पाणा परमाहम्मिया : विश्लेषण—इस पंक्ति का शब्दशः अर्थ होता है सभी प्राणी परम-धार्मिक है। किन्तु धार्मिक शब्द तो अहिंसादि धर्मों के पालन करने वाले के अर्थ में रूढ़ हैं, अतः यहां टीकाकार और चूर्णिकार इसका अभिप्रायार्थ स्पष्ट करते हैं—धर्म का अर्थ यहां स्वभाव है। परम अर्थात् सुख जिनका धर्म-स्वभाव है, वे परम-धार्मिक हैं। अर्थात् समस्त प्राणी सुखाभिलाषी हैं, सुखशील हैं। यहां 'परमा' शब्द में 'अतः समृद्ध्यादौ वा' इस हैमसूत्र से 'म' कार दीर्घ हुआ है। षड्जीवनिकाय पर अश्रद्धा-श्रद्धा के परिणाम [पुढविक्कातिए जीवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगत-पुण्ण-पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो ॥ १॥ आउक्कातिए जीवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते । अणभिगत-पुण्ण-पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो ॥ २॥ ३९. (क) रसाजाता रसजा:-तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृप्याकृतयो अतिसूक्ष्मा भवति । -हारि. वृत्ति, पत्र १४१ (ख) संस्वेदाज्जाता इति संस्वेदजा—मत्कुण-यूका-शतपदिकादयः । -वही, पत्र १४१ (ग) सम्मूर्च्छनाज्जाता सम्मूर्च्छनजा:-शलभ-पिपीलका-मक्षिका-शालूकादयः । -वही, पत्र १४१ (घ) उब्भियानाम भूमिं भेत्तूणं पंखालया सता उप्पाजंति । -जिनदास चूर्णि, पृ. १४० उभेदाज्जन्म येषां ते उद्भेदाः अथवा उद्भेदनमुद्भितः उद्भिजन्म येषां ते उद्भिजा:-पतंग-खंजरीटपारिप्लवादयः । –हारि. वृत्ति, पत्र १४१ (ङ) उपपाताजाता उपपातजाः, अथवा उपपाते भवा औपपातिका–देवा नारकश्च। —हारि. वृत्ति, पत्र १४१ ४०. (क) 'सव्वे पाणा परमाहम्मिया'–परमं पहाणं, तं च सुहं । अपरमं ऊणं, तं पुण दुःखं । धम्मो सभावो । परमो धम्मो जेसिं ते परमधम्मिता । यदुक्तम्-सुखस्वभावाः । -अगस्त्य चूर्णि, पृ.७७ (ख) सुखधर्माण:-सुखाभिलाषिण इत्यर्थः । -हारि. वृत्ति, पत्र १४२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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