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________________ ६३ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा ऐसा चूर्णिद्वय और टीका का मत है।" कंद, मूल, बीज : विशेषार्थ- कंद का अर्थ है शक्करकंद। सूरण आदि का ऊपरी भाग यानि कन्दिल जड़ और मूल का अर्थ है—इन्हीं की सामान्य जड़। जहां 'मूल-कन्द' शब्द का प्रयोग हो, वहां वह वृक्ष की जड़ और उसके ऊपर के भाग का द्योतक समझना चाहिए। बीज का अर्थ-गेहूं, जौ, तिल आदि है जो उगने योग्य हों। सौवर्चल आदि लवण— यहां ६ प्रकार के लवण सचित्त हों तो अग्राह्य बताए हैं—(१) सौवर्चल, (२) सैन्धव, (३) रोमा, (४) सामुद्र, (५) पांशुक्षार और (६) कालालवण। सौवर्चल-सैंचल नमक। अगस्त्य चूर्णि के अनुसार उत्तरापथ के एक पर्वत की खान से निकलता था, वह सौवर्चल लवण है। सम्भव है इसे लाहौरी नमक' कहते हों। सैन्धव सेंधा नमक, सिन्धु देश के पर्वत की खान से पैदा होने वाला नमक। आचार्य हेमचन्द्र इसे (सिन्धु) नदी में उत्पन्न होने वाला तथा हरिभद्रसूरि सांभर का नमक मानते हैं। रोमालवण- अर्थ–रूमा देश में होने वाला, रूमाभव, सांभर का नमक या रूमा अर्थात् लवण की खान में उत्पन्न होने वाला। सामुद्रलवण समुद्र के पानी को क्यारियों में भर कर जमाया जाने वाला नमक सामुद्रलवण, सांभर का लवण।पांशुक्षार—ऊपर जमीन से निकाला हुआ या खारी मिट्टी से निकाला से क्षार नमक।कालालवणचूर्णि के अनुसार कृष्ण नमक, सैन्धवपर्वत के बीच-बीच खानों में होने वाला अथवा दक्षिण समुद्र के निकट होने वाला। धूवणेत्ति : तीन रूप : तीन अर्थ- (१) धूमनेत्र-मस्तिष्कपीड़ा का रोग न हो, इस दृष्टि से धूम्रपान करना, (२) धूमवर्ति धूमपानार्थ उपयुक्त होने वाली वर्ति (शलाका) रखना, उस वर्तिका का एक पार्श्व घी आदि ३७. (क) अणिव्वुडं....पुण जीव-अप्पिजढं, 'आमगं अपरिणतं, सच्चित्तं ।' -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६२ (ख) 'उच्छुखंडमवि दोसु पोरेसु वट्टमाणेसु अणिव्वुडं भवइ ।' -जिनदास चूर्णि (क) 'कन्दो वज्रकन्दादिः, मूलं च सट्टामूलादि ।' -हारि. टीका, पत्र ११८ (ख) 'बीजा गोधूमतिलादिणो ।' -जिन. चूर्णि, पृ. ११५ ३९. (क) 'उत्तरापहे पव्वतस्स लवणखणीसु संभवति ।' -जिन. चूर्णि, पृ. ६२ (ख) 'सोवच्चलं नाम सेंधवलोणपव्वयस्स अंतरंतरेसु लोणखाणीओ भवति ।' -जिन. चूर्णि, पृ. ११५ (ग) 'सेंधवं सेंधवलोणपव्वते संभवति ।' -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६२ (घ) 'सेंधवं तु नदीभवम् ।' -अभि. चिं.४/७ (ङ) (सेंधवं) लवणं च सांभरिलवणम । -हारि. वृत्ति, पत्र ११८ ०. (क) 'रुमालोणं रुमाविसए भवइ ।' -जि. चूर्णि, पृ. ११५ (ख) 'रुमा लवणखानिः स्यात् ।' -अभिधानचिन्तामणि, ४-७ (ग) सामुद्दलोणं समुद्दपाणीयं तं खड्डीए निग्गंतूण रिणभूमिए आरिजमाणं लोणं भवइ । -जि.चू., पृ. ११५ (घ) 'सांभरीलोणं सामुदं'। -अ. चू., पृ. ६२ (ङ) 'पांशुखारश्च ऊषरलवणं ।' -हारि. टी., पत्र ११८ (च) 'तस्सेव सेन्धवपव्वयस्स अंतरतरेस काललोणखाणीओ भवंति ।' -जिन. चू., पृ. ११५ (छ) 'काललवणं सौवर्चलमेवागन्धं दक्षिणसमुद्रसमीपे भवति इत्याह ।'-चरक. सू. २७-२९६, पाट टि १
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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