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________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार - कथा ६१ से होता है— स्पष्ट शब्दों में अथवा प्रकारान्तर से प्रकट करके। दोनों ही प्रकार से जाति आदि का कथन करना आजीववृत्तिता नामक अनाचरित है । यथा— मैं अमुक जाति (ब्राह्मण आदि जाति या मातृपक्ष ) का हूं, अथवा मैं अमुक कुल ( उग्र, भोग आदि कुल या पितृपक्ष) का रहा हूं या गणादि गण या अमुक गच्छ, संघ या संघाटक का हूं या मैं अमुक कर्म (कृषि, वाणिज्य आदि) अथवा अमुक शिल्प (बुनाई, सिलाई, आभूषण घड़ाई, लुहारी आदि) बहुत कुशल था, अथवा मैं बहुत बड़ा तपस्वी या बहुश्रुत (ज्ञानी) हूं, अथवा मैं अमुक लिंग वेष वाला— साधु हूं। इस प्रकार जाति आदि के सहारे आजीविका या आहारादि भिक्षा प्राप्त करना आजीववृत्तिता है। सूत्रकृतांग में तो यहां तक बताया गया है कि जो भिक्षु अकिंचन और रूक्षजीवी है, उसको गौरव (सम्मान) प्रिय अथवा प्रशंसाकामी होना— आजीव है । (आजीववृत्तिक) भिक्षु इस तत्त्व को नहीं समझता हुआ, पुनः पुनः भवभ्रमण करता है । व्यवहारभाष्य में आजीव से जीने वाले भिक्षु को कुशील कहा गया है तथा यह उत्पादना १० दोषों में से एक है। निशीथभाष्य में आजीववृत्तिता से प्राप्त आहार का सेवन करने वाले को आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना का भागी बताया है। आजीववृत्ति से जीने वाला साधु जिह्वालोलुप बन जाता है। वह मुधाजीवी नहीं रहता । उसमें दीनवृत्ति आ जाती है । ३४ तप्तानिर्वृत भोजित्व : विश्लेषण — तप्त और अनिर्वृत ये दोनों विशेषण मिश्र जल तथा वनस्पति के लिए यहां प्रयुक्त हैं। जो जल गर्म (तप्त) होने के बाद अमुक समयावधि के बाद ठंडा होने से सचित्त हो जाता है, उसे तप्तानिर्वृत जल कहते हैं । अगस्त्यसिंहचूर्णि के अनुसार ग्रीष्मकाल में एक अहोरात्र के पश्चात् तथा हेमन्त और वर्षा ऋतु में पूर्वाह्न में गर्म किया हुआ जल अपराह्न में सचित्त हो जाता है। तप्तानिर्वृत जल का एक अर्थ यह भी है कि जो जल गर्म तो हुआ हो, किन्तु पूर्णमात्रा में अर्थात्–तीन बार उबाल आया हुआ (त्रिदण्डोद्वृत्त) न हो वह तप्तानिर्वृत जल है । इस शास्त्र में तप्तप्रासुक जल लेने की आज्ञा है। जल और वनस्पति सचित्त होते हैं, वे शस्त्रपरिणत होने या अग्नि में उबलने पर अचित्त हो जाते हैं । किन्तु जल और वनस्पति, यथेष्ट मात्रा में उबाले हुए न हों तो उस ३३. - सूत्रकृतांग १ / १३ / १२ टीका, पत्र २३७ - अ. चू., पृ. ६१ (क) आजीवं- आजीविकाम्-आत्मवर्त्तनोपायाम् । (ख) 'जाति-कुल- गण-कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा ।' (ग) जाति कुले गणे वा, कम्मे सिप्पे तवे सुए चेव । सत्तविहं आजीवं, उपजीवइ जो कुसीलो उ ॥ -व्यवहारभाष्य, प. २५३ —हा. टी., पत्र ११७ (घ) 'आजीववृत्तिता जात्याद्याजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः इयं चानाचरिता ।' (ङ) जाति: ब्राह्मणादि... अथवा मातुः समुत्था जातिः, कुलं— उग्रादि, अथवा पितृसमुत्थं कुलम् । कर्मकृष्यादिः, अन्ये त्वाहुः - अनाचार्योपदिष्टं कर्म, शिल्पं तूर्णन - सीवनप्रभृति, आचार्योपदिष्टं तु शिल्पमिति । गणः- मल्लादि - वृन्दम् । — पिण्डनिर्युक्ति ४३८ टीका स्था. ५/७१, टीका, प. २८१ (च) लिंगं साधुलिंगं तदाजीवति, ज्ञानादिशून्यस्तेन जीविकां कल्पयतीत्यर्थः । (छ) मल्लगणादिभ्यो गणेभ्यो गणविद्याकुशलत्वं कथयति । तपसः उपजीवना, क्षपकोऽहमिति जनेभ्यः कथयति । श्रुतोपजीवना - बहुश्रुतोऽहमिति । —व्यवहारभाष्य २५३ टीका (ज) साचाजीवना द्विधा - सूचया, असूचया । तत्र सूचा वचनं भंगिविशेषेण कथनम् असूचा-स्फुटवंचनेन । ३४. (क) सूत्रकृ. १/१३/१२ (ख) उत्तरा १५/१६ (ग) आवश्यकसूत्र (घ) निशीथभाष्य गा. ४४१०
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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