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________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार - कथा ५९ को ठहराने पर, (८) स्वाध्याय प्रारम्भ करने पर, (९) उपयोग सहित भिक्षाचरी के लिए निकल जाने पर, (१०) उक्त स्थानक में भोजन प्रारम्भ करने पर, (११) पात्र आदि भंडोपकरण उपाश्रय (स्थान) में रखने पर, (१२) दैवसिक आवश्यक (प्रतिक्रमण) कर लेने पर, (१३) रात्रि का पहला प्रहर बीत जाने पर, (१४) रात्रि का द्वितीय प्रहर व्यतीत होने पर, (१५) रात्रि का तीसरा प्रहर बीत जाने पर अथवा (१६) रात्रि का चौथा प्रहर (उस मकान में) बीतने पर शय्यातर होता है। भाष्यकार के मतानुसार साधुवर्ग रात में जिस उपाश्रय में सोए और अन्तिम आवश्यक प्रतिक्रमण क्रिया कर ले, उस मकान का स्वामी शय्यातर । शय्यातर के यहां से अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र आदि अग्राह्य होते हैं, लेकिन उसके यहां से तृण (घास), राख, बाजोट, पट्टा, पटिया आदि लिये जा सकते हैं। आसंदी : विशेष अर्थ — आसंदी एक प्रकार का बैठने का आसन, अथवा बैठने योग्य मांची, खटिया या पीढी, बेंत की कुर्सी को भी आसंदी कहते हैं । आसंदी पर बैठना इसलिए वर्जित है कि इस पर बैठने से प्रतिलेखनादि होना कठिन है। असंयम होने की सम्भावना है। पर्यं— जो सोने के काम में आए उसे पर्यंक कहते हैं। आसन्दी, पलंग, खाट, मंच, आशालक, निषद्या आदि का प्रतिलेखन होना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि इनमें गम्भीर छिद्र होते हैं । इनमें प्राणियों का प्रतिलेखन करना सम्भव नहीं होता है। अतः सर्वज्ञों के वचन को मानने वाला न इन पर बैठे, न ही इन पर सोए । २९ गृहान्तरनिषद्या - चूर्णि और टीका में इसका अर्थ किया है—घर में अथवा दो घरों के अन्तर (मध्य) में बैठना। उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग आदि में गृहान्तर का अर्थ किया है—परगृह (स्वगृह उपाश्रय या स्थानक से भिन्न परगृह — यानी गृहस्थ का घर), दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन में कहा गया है—' गोचराग्र में प्रविष्ट मुनि कहीं न बैठे।' यहां 'कहीं' का अर्थ किया है—' किसी घर, देवालय, सभा, प्याऊ आदि में।' बृहत्कल्पभाष्य में गृहान्तर के दो प्रकार बताए हैं— सद्भाव गृहान्तर ( दो घरों का मध्य) और असद्भावगृहान्तर (एक ही घर का मध्य ) । निष्कर्ष यह है कि गोचरी करते समय किसी गृहस्थ के घर या सभा, प्रपा आदि परगृह में या दो घरों के मध्य में (वृद्ध, (क) 'शय्या वसति: (आश्रयः) तया तरति संसारमिति शय्यातरः साधुवसतिदाता तत्पिण्डः ' —हारि वृत्ति, पत्र ११७ (ख) जम्हा सेज्जं पडमाणिं छज्ज-लेप्पमादीहिं धरेति तम्हा सेज्जाधरो, अहवा सेज्जादाणपाहण्णतो अप्पाणं नरकादिसु पडतं धरेति त्ति सेज्जाधरो । जम्हा सो सिज्जं करेति, तम्हा सो सिज्जाकरो भण्णति । सेज्जाए संरक्खणं संगोवणं जेण तरति काउं, तेण सेज्जातरो । — निशीथभाष्य २/४५-४६ — निशीथभाष्य गा. ११४४ (ग) सेज्जातरो प्रभू वा, पभुसंदिट्ठो होति कातव्वो । (घ) निशीथभाष्य गा. ११४६-४७ (ङ) निशीथभाष्य गा. ११४८, ११५१, ११५४ २९. (क) 'आसन्दीत्यासनविशेषः ।' २८. (ख) आसन्दिकामुपवेशनयोग्यां मंचिकाम् । (ग) “स्याद्वेत्रासनमासन्दी ।" (घ) पर्यंकशयनविशेषः । (ङ) दशवै. ६/५४-५६ (च) आसंदीपलियंके.....तं विज्जं परिजाणिया । -सूत्र कृ. टीका १/९/२१, पृ. १८२ -सू. टीका १/४/२/१५, पत्र १८२ अभिधानचिन्तामणि ३/३४८ -सू. १/९/२१ टीका -सू. १/९/२१
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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