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________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा ५३ [१९] १०. सन्निधि (खाद्य आदि पदार्थों को संचित करके रखना), ११. गृहि-अमत्र (गृहस्थ के बर्तन में भोजन करना),१२-१ राजपिण्ड (मूर्धाभिषिक्त राजा के यहां से भिक्षा लेना),१२-२ किमिच्छक('क्या चाहते हो?' इस प्रकार पूछ-पूछ कर दिया जाने वाला भोजनादि ग्रहण करना), १३. सम्बाधन (अंगमर्दन, पगचंपी आदि करना), १४. दंतप्रधावन (दांतों को धोना, साफ करना), १५. सम्पृच्छना (गृहस्थों से कुशल आदि पूछना, सावद्य प्रश्न करना), १६. देहप्रलोकन (दर्पण आदि में अपने शरीर तथा अंगोपांगों को देखना) ॥३॥ [२०] १७. अष्टापद—(शतरंज खेलना), १८. नालिका (नालिका से पासा फेंक कर जुआ खेलना), १९. छत्रधारण (बिना प्रयोजन के छत्रधारण करना), २०. चिकित्सा कर्म (गृहस्थों की चिकित्सा करना अथवा रोगनिवारणार्थ सावध चिकित्सा करना-कराना), २१. उपानत्-(पैरों में जूते, मोजे, बूट या खडाऊं पहनना) तथा २२. ज्योति-समारम्भ (अग्नि प्रज्वलित करना) ॥ ४॥ [२१] २३. शय्यातरपिण्ड (स्थानदाता के यहां से आहार लेना), २४. आसन्दी—(बेंत की या अन्य किसी प्रकार की छिद्र वाली लचीली कुर्सी या आराम कुर्सी अथवा खाट, मांचे आदि पर बैठना), २५. पर्यंक(पलंग, ढोलया या स्प्रिंगदार तख्त आदि पर बैठना, सोना), २६. गृहान्तरनिषद्या (भिक्षादि करते समय गृहस्थ के घर में या दो घरों के बीच में बैठना) और २७. गात्रउद्वर्तन (शरीर पर उबटन, पीठी आदि लगाना) ॥५॥ [२२] २८. गृहि-वैयावृत्त्य—(गृहस्थ की सेवा-शुश्रूषा करना या गृहस्थ से शारीरिक सेवा लेना), २९. आजीववृत्तित्ता (शिल्प, जाति, कुल, गण और कर्म का अवलम्बन लेकर आजीविका करना या भिक्षा लेना), ३०. तप्ताऽनिर्वृतभोजित्व—(जो आहारपानी अग्नि से अर्धपक्व या अशस्त्रपरिणत हो, उसका उपभोग करना), ३१. आतुरस्मरण (आतुरदशा में पूर्वभुक्त भोगों या पूर्वपरिचित परिजनों का स्मरण करना) ॥६॥ __ [२३] ३२. अनिर्वृतमूलक (अपक्व सचित्त मूली), ३३. (अनिवृत) शृङ्गबेर (अदरख), ३४. (अनिवृत) इक्षुखण्ड (सजीव ईख के टुकड़े लेना), ३५. सचित्त कन्द—(सजीव कन्द), ३६. (सचित्त) मूल (सजीव मूल या जड़ी लेना या खाना), ३७. आमक फल—(कच्चा फल), ३८.(आमक) बीज(अपक्व बीज लेना व खाना) ॥७॥ __ [२४] ३९. आमक सौवर्चल—(अपक्व-अशस्त्रपरिणत सैंचल नमक), ४०. सैन्धव लवण (अपक्व सैंधानमक), ४१. रुमा लवण—(अपक्व रुमा नामक नमक), ४२. सामुद्र (अपक्व समुद्री नमक), ४३. पांशुक्षार—(अपक्व ऊषरभूमि का नमक या खार), ४४. काल-लवण—(अपक्व काला नमक लेना व खाना) ॥८॥ [२५] ४५. धूमनेत्र अथवा धूपन (धूम्रपान करना या धूम्रपान की नलिका या हुक्का आदि रखना अथवा वस्त्र, स्थान आदि को धूप देना), ४६. वमन (औषध आदि लेकर वमन –कै करना), ४७. बस्तिकर्म(गुह्यस्थान द्वारा तेल, गुटिका या एनिमा आदि से मलशोधन करना), ४८. विरेचन (बिना कारण औषध आदि द्वारा जुलाब लेना), ४९. अंजन—(आंखों में अंजन—सुरमा या काजल आदि आंजना या लगाना), ५०. दंतवन(दातुन करना, अथवा दांतों को मिस्सी आदि लगाकर रंगना), ५१. गात्राभ्यंग (शरीर पर तेल आदि की मालिश करना) और ५२. विभूषण—(शरीर की वस्त्राभूषण आदि से साजसज्जा—विभूषा करना) ॥९॥ ॥
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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