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________________ " । जिसकी आत्मा संयम में सुस्थित होती है, धर्म में जिसकी धृति होती है, अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म जिसके जीवन में रम जाता है, वही आचार को निभाता है और अनाचार से अपने आपको बचाता है। संयम में स्थिरता, अहिंसादि रूप धर्म में धृति और आचार का परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। आचार और अनाचार की परिभाषा शास्त्रीय दृष्टि से इस प्रकार होती है जो अनुष्ठान या प्रवृत्ति मोक्ष के लिए हो, या जो आचरण या व्यवहार अहिंसादि-धर्म से सम्मत एवं शास्त्रविहित हो, वह आचार है। आचार का प्रतिपक्षी या आचार के विपरीत जो हो वह अनाचार है। शास्त्रों में आचरणीय वस्तु पांच बताई हैं—१. ज्ञान, २. दर्शन, ३. चारित्र, ४. तप और ५. वीर्य। इसलिए आचार के ५ प्रकार बनते हैं—ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। इसलिए आचार-अनाचार का लक्षण यह भी हो सकता है कि जो अनुष्ठान, आचरण या व्यवहार ज्ञानादि पंचविध आचारों के अनुकूल हो वह आचार या आचीर्ण है और जो इनसे प्रतिकूल हो, वह अनाचार या अनाचीर्ण है। आचार धर्म या कर्त्तव्य है, जबकि अनाचार, अधर्म या अकर्तव्य है। अनाचार का अर्थ होता है—निषिद्ध आचरण या कर्म, परिज्ञापूर्वक प्रत्याख्यातव्य कर्म। शास्त्रकार ने 'तेसिमेयमणाइण्णं' (महर्षियों के लिए ये अनाचीर्ण हैं) कह कर संख्यानिर्देश के बिना अनाचारों का उल्लेख किया है। वृत्ति तथा दोनों चूर्णियों में भी संख्या का निर्देश नहीं है। हां, दीपिका में अनाचारों की ५४ संख्या का उल्लेख अवश्य है। वर्तमान में अनाचारों की परम्परागतमान्य संख्या ५२ है। कहीं-कहीं अनाचारों की संख्या ५३ भी बताई गई है। किन्तु संख्या का भेद तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। ५३ की परम्परा वाले 'राजपिण्ड' और 'किमिच्छक' को एक मानते हैं और ५२ की परम्परा वाले 'आसन्दी' तथा पर्यंक को और गात्राभ्यंग तथा विभूषण को एक-एक अनाचीर्ण मानते हैं। अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'औद्देशिक' से लेकर 'विभूषण' तक की प्रवृत्तियों को अनाचार मानने के कारणों का निर्देश भी किया है। संजमे सुट्ठिअप्पाणं...तेसिमेयणाइण्णं । -दशवै. मूलपाठ, अ. ३, गा. १ (क) धम्मे धितिमतो आयारसुट्टितस्स फलोवदरिसणोवसंहारे । -अग. चूर्णि, पृ. ४९ (ख) तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रतः सदा । स एव धृतिमान, धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः । -हारि. वृत्ति, पत्र १०० दंसण-नाग-चरित्ते तव-आयारे य वीरियायारे । एसो भावायारो पंचविहो होइ नायव्वो ॥ -नियुक्ति गा. १८१ सर्वमेतत् पूर्वोक्त-चतुपंचाशद् भेदभिन्नमौद्देशिकादिकं यदनन्तरमुक्तं तत्सर्वमनाचरितम् उक्तम् ।—वही, पृ. ७ ६. ८. ९.
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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