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________________ ४३ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक समस्त साधकों के लिए प्रेरणा १६. एवं करेंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा । विणियटुंति भोगेसु, जहा से पुरिसोत्तमो ॥११॥ -त्ति बेमि ॥ ॥ बिइयं सामण्णपुव्वगऽज्झयणं समत्तं ॥ अर्थ-[१६] सम्बुद्ध, प्रविचक्षण और पण्डित ऐसा ही करते हैं। वे भोगों से उसी प्रकार निवृत्त (विरत) हो जाते हैं, जिस प्रकार वह पुरुषोत्तम रथनेमि हुए ॥ ११॥ विवेचन— प्रस्तुत उपसंहारात्मक अन्तिम गाथा में सम्बुद्ध, पण्डित एवं विचक्षण साधकों को पुरुषोत्तम रथनेमि की तरह कामभोगों से विरत होने की प्रेरणा दी गई है। ___ सम्बुद्धा, 'पंडिया' एवं 'पवियक्खणा' में अन्तर– प्रश्न होता है कि 'सम्बुद्धा, पंडिया और पवियक्खणा' ये तीनों शब्द एकार्थक प्रतीत होते हैं, फिर इन तीनों को प्रस्तुत गाथा में अंकित क्यों किया गया? क्या एक शब्द से काम नहीं चल सकता था? इसका समाधान आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस प्रकार किया है—यद्यपि स्थूल दृष्टि से देखने पर तीनों समानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु ये विभिन्न अपेक्षाओं से अलग-अलग अर्थों को द्योतित करते हैं। यथा— जो सम्यग्-दर्शनसहित बुद्धिमान् होता है, वह सम्बुद्ध कहलाता है। अर्थात् सम्यक्दर्शन की प्रधानता से साधक सम्बुद्ध होता है अथवा विषयों के स्वभाव को जानने वाला सम्बुद्ध होता है। पण्डित का अर्थ है सम्यग्ज्ञानसम्पन्न। अतः सम्यग्ज्ञान की प्रधानता से साधक पण्डित कहलाता है। प्रविचक्षण का अर्थ हैसम्यक्चारित्र-सम्पन्न, अथवा पापभीरु संसारभय से उद्विग्न । सम्यक्चारित्र की प्रधानता से साधक प्रविचक्षण कहलाता है। शास्त्रकार का तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय को जो धारण करता है वह कामभोगों से उसी प्रकार निवृत्त हो जाता है, जिस प्रकार पुरुषोत्तम रथनेमि हो गए थे। संयमविचलित को पुरुषोत्तम क्यों ?- प्रश्न होता है विरक्तभाव से दीक्षित होने पर भी राजीमती को देखकर उनके प्रति सराग भाव से श्री रथनेमि का चित्त चलायमान हो गया और वे संयम से चलित होकर राजीमती से विषयभोगों की याचना करने लगे। फिर उन्हें पुरुषोत्तम क्यों कहा गया? इसका समाधान यह है कि मन में विषयभोगों की अभिलाषा उत्पन्न होने पर कापुरुष तदनुरूप दुष्प्रवृत्ति करने लगता है, परन्तु पुरुषार्थी पुरुष कदाचित् मोहकर्मोदयवश विषयभोगों की अभिलाषा उत्पन्न हो जाए और उसे किसी का सदुपदेश मिल जाए तो वह ५१. (क) पंडिया णाम चत्ताणं भोगाणं पडियाइणे जे दोसा परिजाणंति पंडिया । -जि. चू., पृ. ९२ (ख) पण्डिताः-सम्यग्ज्ञानवन्तः । -हा.टी., पत्र ९९ (ग) संबुद्धा बुद्धिमन्तो सम्यग्दर्शनसाहचर्येण दर्शनैकीभावेन वा बुद्धा-सम्बुद्धा-सम्यग्दृष्टयः, विदितविषयस्वभावाः। -हा.टी., पत्र ९९ (घ) प्रविचक्षणा:-चरणपरिणामवन्तः अवद्यभीरवः । -हा.टी., पत्र ९९ (ङ) वज़भीसणा णाम संसारभयुविग्गा, थोवमवि पावं णेच्छंति। -जि.चू., पृ. ९२ (च) दशवै. (आचार्य श्री आत्माराम जी म.), पृ. ३२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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