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अन्तक्रिया : एक चिन्तन
बीस पद का नाम अन्तक्रिया है। मृत्यु होने पर जीव का स्थूल शरीर यहीं पर रह जाता है पर तैजस और कार्मण, जो सूक्ष्म शरीर हैं, उसके साथ रहते हैं। कार्मणशरीर के द्वारा ही फिर स्थूल शरीर निष्पन्न होता है। अतः स्थूल शरीर के एक बार छूट जाने के बाद सूक्ष्म शरीर रहने के कारण जन्म-मरण की परम्परा का अन्त नहीं होता। जब सूक्ष्म शरीर नष्ट हो जाते हैं तो भवपरम्परा का भी अन्त हो जाता है। अन्तक्रिया का अर्थ है जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करना। भव का अन्त करने वाली क्रिया अन्तक्रिया है। यह क्रिया दो अर्थों में व्यवहत हई है-नवीन भव अथवा मोक्ष. दसरे शब्दों में यहाँ पर मोक्ष और मरण दोनों अर्थों में अन्तक्रिया शब्द का प्रयोग हुआ है। स्थानांग में भरत गजसुकुमाल, सनत्कुमार और माता मरुदेवी की जो अन्तक्रिया बताई गई है, वह जन्म-मरण का अन्त कर मोक्ष प्राप्त करने की क्रिया है। वे आत्मा एवं शरीर आदि से उत्पन्न क्रियाओं का अन्त कर अक्रिय बन गए।७४ प्रस्तुत पद में अन्तक्रिया का विचार जीवों के नरक आदि चौबीस दण्डकों में किया गया है। यह भी बताया गया है कि सिर्फ मानव ही अन्तक्रिया यानी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसका वर्णन दस द्वारों के द्वारा किया गया है।
अवगाहना-संस्थान : एक चिन्तन -
इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थान' पद है। इस पद में जीवों के शरीर के भेद, संस्थान-आकृति, प्रमाणशरीर का माप, शरीरनिर्माण के लिए पुद्गलों का चयन, जीव में एक साथ कौनसे शरीर होते हैं? शरीरों के द्रव्यों और प्रदेशों का अल्प-बहुत्व और अवगाहना का अल्प-बहुत्व इन सात द्वारों से शरीर के सम्बन्ध में विचारणा की गई है। गति आदि अनेक द्वारों से पूर्व में जीवों की विचारणा हुई है, पर उनमें शरीरद्वार नहीं है। यहाँ पर प्रथम विधिद्वार में शरीर के पांच भेदों -औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण का वर्णन करने के पश्चात् औदारिक आदि शरीरों के भेदों की चर्चा है। औदारिकशरीरधारी एकेन्द्रिय आदि में कौनसा संस्थान है, उनकी अवगाहना कितनी है? एक जीव में एक साथ कितने-कितने शरीर सम्भव हैं? शरीर के द्रव्य-प्रदेशों का अल्पबहुत्व, शरीर की अवगाहना का अल्पबहुत्व आदि के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। क्रिया : एक चिन्तन
बाईसवाँ क्रियापद है। प्राचीन युग में सुकृत-दुष्कृत, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल कर्म के लिए क्रिया शब्द व्यवहृत होता था और क्रिया करने वालों के लिए क्रियावादी शब्द का प्रयोग किया जाता था। आगम व पाली-पिटकों में प्रस्तुत अर्थ में क्रिया का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है।१७५ प्रस्तुत पद में क्रिया-कर्म की विचारणा की गई है। कर्म अर्थात् वासना या संस्कार, जिनके कारण पुनर्जन्म होता है। जब हम आत्मा के जन्म-जन्मान्तर की कल्पना करते हैं तब उसके कारण-रूप कर्म की विचारणा अनिवार्य हो जाती है।
१७४. स्थानांग, स्थान ४१ १७५. दीघनिकाय सामञ्जफलसुत्त
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