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विचार इन तीनों अर्थों में लेश्या शब्द व्यवहत हुआ है। शरीर के वर्ण और आणविक आभा द्रव्यलेश्या हैं१५८ तो विचार भावलेश्या हैं।१५९
विभिन्न ग्रन्थों में लेश्या की विभिन्न परिभाषायें प्राप्त होती हैं। प्राचीन पंचसंग्रह, १६० धवला, १६१ गोम्मटसार, १६२ आदि में लिखा है कि जीव जिसके द्वारा अपने को पुण्य पाप से लिप्त करता है, वह लेश्या है। तत्त्वार्थवार्तिक १६३ पंचास्तिकाय, १६४ आदि ग्रन्थों के अनुसार कषाय के उदय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति लेश्या है। स्थानांग-अभयदेववृत्ति, १६५ ध्यानशतक, १६६ प्रभृति ग्रन्थों में लिखा है जिसके द्वारा प्राणी कर्म से संश्लिष्ट होता है उसका नाम लेश्या है। कृष्ण आदि द्रव्य की सहायता से जो जीव का परिणाम होता है वह लेश्या है। योग परिणाम लेश्या है।१६७
उपर्युक्त परिभाषाओं के अनुसार लेश्या से जीव और कर्म के पुद्गलों का संबंध होता है, कर्म की स्थिति निष्पन्न होती है और कर्म का उदय होता है। आत्मा की शुद्धि और अशुद्धि के साथ लेश्या का संबंध है। पौद्गलिक लेश्या का मन की विचारधारा पर प्रभाव पड़ता है और मन की विचारधारा का लेश्या पर प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार की लेश्या होगी वैसी ही मानसिक परिणति होगी। कितने ही मूर्धन्य मनीषियों का यह मन्तव्य है कि कषाय की मंदता से अध्यवसाय में विशुद्धि होती है और अध्यवसाय की विशुद्धि से लेश्या की शुद्धि होती है।१६८
जिंस परिभाषा के अनुसार योगप्रवृत्ति लेश्या है, उस दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान तक भावलेश्या का सद्भाव है और जिस परिभाषा के अनुसार कषायोदय-अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है, उस दृष्टि से दसवें गुणस्थान पर्यन्त ही लेश्या है। ये दोनों परिभाषायें अपेक्षाकृत होने से एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं हैं। जहाँ योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा है, वहाँ पर प्रकृति और प्रदेशबन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्या के रूप में १५७. जह बाहिरलेस्साओ, किण्हादीओ हवंति पुरिसस्स।
अब्भन्तरलेस्साओ, तह किण्हादीय पुरिसस्स॥-मूलाराधना, ७११९०७ १५८. (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा, ४९४ (ख) उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ५३९ १५९. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ५४०
१६०. प्राचीन पंचसंग्रह १-१४२ १६१. धवला, पु. १, पृ. १५०
१६२. गोम्मटसार, जीवकाण्ड ४८९ १६३. तत्त्वार्थवार्तिक २, ६, ८
१६४. पंचास्तिकाय जयसेनाचार्य वृत्ति १४० १६५. लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या स्थानांग अभयदेववृत्ति ५१, पृ. ३१ १६६. कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः।
स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयजते॥-ध्यानशतक हरिभद्रीयावत्ति १४ १६७. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र ६५० १६८. (क) लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधिए होई जनस्स।
अज्झवसाणविसोधी, मंदलेसायस्स णादव्वा॥-मूलाराधना १।१९११ . (ख) अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः शुद्धिः सम्पद्यते बहिः।
बाह्यो हि शुध्यते दोषः सर्वमन्तरदोषतः ॥ –मूलाराधना (अमितगति), ७।१९६७
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