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सिद्धों के श्वासोच्छ्वास नहीं होता है, अतः सातवें पद में संसारी जीवों के श्वासोच्छ्वास के काल की चर्चा है। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि जितना दुःख अधिक उतने श्वासोच्छ्वास अधिक होते हैं और अत्यन्त दुःखी की तो निरन्तर श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया चालू रहती है। १२५ ज्यों-ज्यों अधिक सुख होता है त्यों-त्यों श्वासोच्छ्वास लम्बे समय के बाद लिये जाते हैं, यह अनुभव की बात है। १२६ श्वासोच्छ्वास की क्रिया भी दुःख है। देवों में जिनकी जितनी अधिक स्थिति है उतने ही पक्ष के पश्चात् उनकी श्वासोच्छ्वास की क्रिया होती है, इत्यादि का विस्तार से निरूपण है। १२७ ____ आठवें संज्ञापद में जीवों की संज्ञा के सम्बन्ध में चिंतन किया है। संज्ञा दश प्रकार की है—आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और ओघ । इन संज्ञाओं का २४ दण्डकों की अपेक्षा से विचार किया है और संज्ञा-सम्पन्न जीवों के अल्पबहुत्व का भी विचार किया है। नारक में भयसंज्ञा का, तिर्यच में आहारसंज्ञा का, मनुष्य में मैथुनसंज्ञा का और देवों में परिग्रहसंज्ञा का बाहुल्य है।
नवें पद का नाम योनिपद है। एक भव में से आयु पूर्ण होने पर जीव अपने साथ कार्मण और तैजस शरीर लेकर गमन करता है। जन्म लेने के स्थान में नये जन्म के योग्य औदारिक आदि शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। उस स्थान को योनि अथवा उद्गमस्थान कहते हैं। प्रस्तुत पद में योनि का अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है। शीत, उष्ण, शीतोष्ण, सचित्त, अचित्त, मिश्र, संवृत, विवृत और संवृतविवृत, इस प्रकार जीवों के ९ प्रकार के योनि-स्थान अर्थात् उत्पत्तिस्थान हैं। इन सभी का विस्तार से निरूपण है।
___ दसवें पद में द्रव्यों के चरम और अचरम का विवेचन है। जगत् की रचना में कोई चरम के अन्त में होता है तो कोई अचरम के अन्त में नहीं किन्तु मध्य में होता है। प्रस्तुत पद में विभिन्न द्रव्यों के लोक-. अलोक आश्रित चरम और अचरम के सम्बन्ध में विचारणा की गई है। चरम-अचरम की कल्पना किसी अन्य की अपेक्षा से ही संभव है। प्रस्तुत पद में छः प्रकार के प्रश्न पूछे गये हैं—१. चरम है, २. अचरम है, ३. चरम हैं (बहुवचन), ४. अचरम हैं, ५. चरमान्त प्रदेश हैं, ६. अचरमान्त प्रदेश हैं। इन छह विकल्पों को लेकर २४ दण्डकों में जीवों का इत्यादि दृष्टि से विचार किया गया है। उदाहरणार्थ, गति की अपेक्षा से चरम उसे कहते हैं कि जो अब अन्य किसी गति में न जाकर मनुष्यगति में से सीधा मोक्ष में जाने वाला है। किन्तु मनुष्य गति में से सभी मोक्ष में जाने वाले नहीं हैं, इसलिए जिनके भव शेष हैं वे सभी जीव गति की अपेक्षा से अचरम हैं। इसी प्रकार स्थिति आदि से भी चरम-अचरम का विचार किया गया है।
भाषा : एक चिन्तन
ग्यारहवें पद में भाषा के सम्बन्ध में चितन करते हुए बताया है कि भाषा किस प्रकार उत्पन्न होती है, कहाँ रहती है, उसकी आकृति क्या है? साथ ही उसके स्वरूप-भेद-प्रभेद, बोलने वाला व्यक्ति प्रभृति विविध १२५. अतिदुःखिता हि नैरयिकाः, दुःखितानां च निरन्तरं उच्छ्वासनिःश्वासौ, तथा लोके दर्शनात्। -प्रज्ञापना टीका, पत्र २२० २२६. सुखितानां च यथोत्तरं महानुच्छ्वास-नि:श्वासक्रियाविरहकालः। -प्रज्ञापना टीका पत्र २२१ १२७. यथा-यथाऽऽयुषः सागरोपमवृद्धिस्तथा-तथोच्छवास-नि:श्वासक्रियाविरहप्रमाणस्यापि पक्षवृद्धिः।
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