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________________ इसमें केवल जीवों का ही नहीं किन्तु धर्मास्तिकाय आदि षड्द्रव्यों की भी परस्पर संख्या का तारतम्य निरूपण किया गया है। वह तारतम्य द्रव्यदृष्टि और प्रदेशदृष्टि से बताया गया है। प्रारम्भ में दिशा को मुख्य करके संख्या-विचार है और बाद में ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् लोक की दृष्टि से समग्र जीवों के भेदों का संख्यागत विचार है। जीवों की तरह पुद्गलों की संख्या का अल्पबहुत्व भी उन उन दिशाओं में व उन उन लोकों में बताया है। इसके सिवाय द्रव्य, प्रदेश और द्रव्यप्रदेश दृष्टियों से भी परमाणु और संख्या का विचार है। उसके बाद पुद्गलों की अवगाहना, कालस्थिति और उनकी पर्यायों की दृष्टि से भी संख्या का निरूपण किया गया है। इस पद में जीवों का अनेक प्रकार से वर्गीकरण करके अल्पबहुत्व का विचार किया है। इसकी संख्या की सूची पर से यह फलित होता है कि उस काल में भी आचार्यों ने जीवों की संख्या का तारतम्य (अल्पबहुत्व) बताने का इस प्रकार जो प्रयत्न किया है, वह प्रशस्त है। इसमें बताया गया है कि पुरुषों से स्त्रियों की संख्या-चाहे मनुष्य हों, देव हों या तिर्यञ्च हों—अधिक मानी गई है। अधोलोक में नारकों में प्रथम से सातवीं नरक में जीवों का क्रम घटता गया है अर्थात् सबसे नीचे के सातवें नरक में सबसे कम नारक जीव हैं। इसके विपरीत क्रम उर्ध्वलोक के देवों में है, नीचे के देवलोकों में सबसे अधिक जीव हैं, अर्थात् सौधर्म में सबसे अधिक और अनुत्तर विमानों में सबसे कम हैं। परन्तु मनुष्यलोक (तिर्यक्लोक) के नीचे भवनवासी देव हैं। उनकी संख्या सौधर्म से अधिक है और उनसे ऊपर होने पर भी व्यन्तर देवों की संख्या अधिक और उनसे भी अधिक ज्योतिष्क हैं, जो व्यन्तरों से भी ऊपर हैं। __ सबसे कम संख्या मनुष्यों की है। इसलिए यह भव दुर्लभ माना जाय यह स्वाभाविक है। इन्द्रियाँ जितनी कम उतनी जीवों की संख्या अधिक। अथवा ऐसा कह सकते हैं कि विकसित जीवों की अपेक्षा अविकसित जीवों की संख्या अधिक है। अनादिकाल से आज तक जिन्होंने पूर्णता प्राप्त कर ली है, ऐसे सिद्ध जीवों की संख्या भी एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से कम ही है। संसारी जीवों की संख्या सिद्धों से अधिक ही रहती है। इसलिए यह लोक संसारी जीवों से कभी शून्य नहीं होगा, क्योंकि प्रस्तुत पद में जो संख्याएँ दी हैं उनमें कभी परिवर्तन नहीं होगा, वे ध्रुवसंख्याएँ हैं। सातवें नरक में अन्य नरकों की अपेक्षा सबसे कम नारक जीव हैं तो सबसे ऊपर देवलोक-अनुत्तर में भी अन्य देवलोकों की अपेक्षा सबसे कम जीव हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे अनन्त पुण्यशाली होना दुष्कर है, वैसे ही अत्यन्त पापी होना भी दुष्कर है। जीवों का जो क्रमिक विकास माना गया है उनके अनुसार तो निकृष्ट कोटि के जीव एकेन्द्रिय हैं। एकेन्द्रिय में से ही आगे बढ़कर जीव क्रमशः विकास को प्राप्त होते हैं। एकेन्द्रियों और सिद्धों की संख्या अनन्त की गणना में पहुँचती है। अभव्य भी अनन्त हैं और सिद्धों की अपेक्षा समग्र रूप से संसारी जीवों की संख्या भी अधिक है और यह बिल्कुल संगत है, क्योंकि भविष्य में—अनागत काल में संसारी जीवों में से ही सिद्ध होने वाले हैं। इसलिए वे कम हों तो संसार खाली हो जायेगा, ऐसा मानना पड़ेगा। [५४]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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