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छठें वक्कंतिपयं
छठा व्युत्क्रान्तिपद प्राथमिक
0 प्रज्ञापनासूत्र का यह छठा व्युत्क्रान्तिपद है। । प्रस्तुत पद का विषय नाना प्रकार के जीवों की 'व्युत्क्रान्ति'- अर्थात्- उस-उस गति में उत्पत्ति
और उस-उस गति में से अन्यत्र उत्पत्ति से सम्बन्धित प्रश्नों की चर्चा करना है। संक्षेप में, जीवों की गति और आगति से सम्बन्धित विचारणा इस पद में की गई है। 0 यह विचारण निम्नोक्त आठ द्वारों के माध्यम से प्रस्तुत पद में की गई है- (१)द्वादश द्वार (उपपात
और उद्वर्तना का विरह काल), (२) चतुर्विंशतिद्वार- (जीव के प्रभेदों के उपपात और उद्वर्तन का विरहकाल),(३) सान्तरद्वार (जीवप्रभेदों का सान्तर एवं निरन्तर उपपात और उद्वर्तन-सम्बन्धी विचार), (४) एकसमयद्वार (एक समय में कौनसे कितने जीवों का उपपात और उद्वर्तन होता है, यह विचार),(५) कुतः द्वार-(जीव उन-उन पर्यायों में कहाँ-कहाँ से मरकर उत्पन्न होता है, इसकी प्ररूपणा), (६) उद्वर्तनाद्वार—(जीव वर्तमान भव से मर कर किस-किस भव में जाता है, इसकी विचारणा), (७) पारभविकायुष्यद्वार-(आगामी नये भव का आयुष्य जीव वर्तमान भव में कब बांधता है? इसका चिन्तन, और) (८) आकर्षद्वार- (आयुष्यबन्ध के ६ प्रकार, कितने आकर्षों में जीव जाति आदि नाम विशिष्ट आयुकर्म बांधता है? तथा न्यूनाधिक आकर्षों वाले जीवों के अल्पबहुत्व का विचार)। प्रथम द्वार का नाम 'बारस' (द्वादश) इसलिए रखा गया है कि इसमें नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों गतियों के जीवों का उपपातविरह (नरकादि जीव उस-उस रूप में उत्पन्न होते रहते हैं, उनमें बीच में उत्पत्तिशून्य (काल तथा उद्वर्तनाविरह (नरकादि जीव मरते रहते हैं, उनमें बीच में मरणशून्य) काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट १२ मुहूर्त का है। 0 द्वितीय द्वार का नाम 'चउवीसा' (चतुर्विंशति) इसलिए रखा गया है कि नरकादि गतियों के प्रभेदों ___ की दृष्टि से प्रथम नरक में उपपातविरहकाल और उद्वर्तनाविरहकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट
२४ मुहूर्त हैं । यद्यपि चतुर्गतिक जीवों के प्रभेदों में सबका उपपातविरहकाल और उद्वर्तनाविरहकाल २४ मुहूर्त का नहीं है, किन्तु प्रथम रत्नप्रभा नरक के उपपात एवं उद्वर्तन के विरह का काल
चौबीस ही मुहूर्त है, इस दृष्टि से प्रारम्भ का पद पकड़ कर इस द्वार का नाम 'चौबीस' रखा गया है। १. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त)भा. १, पृ. १६३ (ख) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक २०५
(ग) पण्णवणासुत्तं भा. २, छठे पद की प्रस्तावना, पृ ६७