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[ प्रज्ञापना सूत्र
गोमा ! जहण्णगुणकालए अणतपएसिए जहण्णगुणकालयस्स अणंतपएसियस्स दव्वट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्टाणवडिते, ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वण्णादि - अट्ठफासेहि य छट्टाणवडिते ।
[५४३-१ प्र.] भगवन्! जघन्यगुण काले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [५४३ - १ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय ( कहे हैं ।)
[प्र.] भगवन्! किस हेतु आप ऐसा कहते हैं कि जघन्यगुण काले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ?
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[3.] गौतम! एक जघन्यगुण काला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुण काले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य तथा अवशिष्ट वर्ण आदि अष्टस्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है ।
[ २ ] एवं उक्कोसगुणकालए वि ।
[५४३-२] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले ( अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के पर्याय के विषय में जानना चाहिए ।
३ ] अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चैव । नवरं सट्ठाणे छट्टाणवडिते ।
[५४३ - ३] इसी प्रकार ( का पर्याय - विषयक कथन ) मध्यमगुण काले ( अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का करना चाहिए।) स्वस्थान की अपेक्षा षट्स्थान पतित है ।
५४४. एवं नील-लोहित - हालिद्द - सुक्किल्ल - सुब्भिगंध - दुब्भिगंध-तित्त- कडुय-कसायअंबिल-महुर-रसपज्जवेहि य वत्तव्वया भाणियव्वा । नवरं परमाणुपोग्गलस्स सुब्भिगंधस्स दुब्भिगंधी न भण्णति, दुब्भिगंधस्स सुब्भिगंधो न भण्णति, तित्तस्स, अवसेसा ण भण्णति । एवं कडुयादीण वि । सेसं तं चेव ।
[५४४] इसी प्रकार नील, रक्त हारिद्र ( पीत), शुक्ल (श्वेत), सुगन्ध, दुर्गन्ध, तिक्त ( तीखा ), कटु, काषाय, आम्ल (खट्टा), मधुर रस के पर्यायों से भी अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की पर्याय सम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि सुगन्धवाले परमाणुपुद्गल में दुर्गन्ध नहीं कहा जाता है और दुर्गन्ध वाले परमाणुपुद्गल में सुगन्ध नहीं कहा जाता । तिक्त ( तीखे ) रस वाले में शेष रस का कथन नहीं करना चाहिए, कटु आदि रसों के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए। शेष सब बातें उसी तरह पूर्व ही हैं।
५४५. [ १ ] जहण्णगुणकक्खडाणं अणतपएसियाणं पुच्छा । गोयमा ! अनंता ।