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________________ ४५० ] [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता अनन्त पर्याय हैं ? [प्रज्ञापना सूत्र धन्यगुणा काले द्विप्रदेशिक स्कन्धों के [उ.] गौतम! एक जघन्यगुण काला द्विप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे द्विप्रदेशिक स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन कदाचित तुल्य और कदाचित अधिक है। यदि हीन हो तो एक प्रदेश हीन होता है, यदि अधिक हो, तो एक प्रदेश अधिक होता है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होता है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और शेष वर्णादि उपर्युक्त चार स्पर्शों के पर्यार्थों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है ।' Ph 119 [ २ ] एवं उक्कोसगुणकालए वि। [५३९-२] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले ( परमाणुपुद्गलों की पर्याय प्ररूपणा समझनी चाहिए।) - [ ३ ] एवमजहृण्णमणुक्कोसगुणकालए वि । णवरं सद्वाणे छट्टाणवडिते। [५३९ - ३] इसी प्रकार मध्यमगुण काले परमाणुपुद्गलों की भी पर्याय- प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए। विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित कहना चाहिए । ५४० एवं जाव दसपएसिते । णवरं पएसपरिवुड्डी, ओगाहणा तहेव । [५४०] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए। अवगाहना से उसी प्रकार है । ५४१. [ १ ] जहण्णगुणकालयाणं भंते ? संखेज्जपऐसियाणं पुच्छा... गोयमा! अणता सेकेणट्ठे गोयमा ! जहण्णगुणकालए संखेज्जपएसिए जहण्णगुणकालमस्स संखेज्जपएसियस्स दव्वट्टयाते तुल्ले, पसट्टयाते दुट्ठाणवडिते; ओगाहणट्टयाए दुट्ठाणवर्डिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण - पज्जवेहिं तुल्ले अवसेसेहिं वण्णादि-उविरल्लच फासेहि य छट्टापणवडिते । [५४१-१ प्र.] भगवन्! जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [५३९-१ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय ( कहे हैं ।) [प्र.] भगवन् ! किसे कारण से ऐसा कहते हैं। कि जघन्यगुण काले असंख्यात प्रदेशी के अनन्त पर्याय हैं ? | उ.] गौतम! एक जैधन्यगुण काला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुण - काले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से द्विस्थानपतित हैं, अवगाहना की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, तथा स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और अवशिष्ट वर्ण आदि तथा ऊपर के चार स्पर्शो की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है ।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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