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________________ पांचवा विशेषपद (पर्यायपद ) ] [ ३८७ असुरकुमारों के पर्यायों की अनन्तता - - एक असुरकुमार दूसरे असुरकुमार से पूर्वोक्त सूत्रानुसार द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना और स्थिति के पर्यायों की दृष्टि से पूर्ववत् चतुःस्थानपतित हीनाधिक है तथा कृष्णादिवर्ण, सुगन्ध-दुर्गन्ध, तिक्त आदि रस, कर्कश आदि स्पर्श एवं ज्ञान, अज्ञान एवं दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से पूर्ववत् षट्स्थानपतित हैं । आशय यह है कि कृष्णवर्ण को लेकर अनन्तपर्याय होते हैं, तो सभी वर्णों के पर्यायों का तो कहना ही क्या ? इस हेतु से असुरकुमारों के अनन्तपर्याय सिद्ध हो जाते हैं । पांच स्थावरों (एकेन्द्रियों) के अनन्तपर्यायों की प्ररूपणा ४४३. पुढविकाइयाणं भंते! केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता । से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति पुढविकाइयाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! पुढविकाइए पुढविकाइयस्स दव्वट्टयाए तुल्ले, पदेउसट्टयाए तुल्ले; ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भइए— जदि हीणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे या असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अब्भहिए असंखेज्जतिभाग अब्भहिए वा संखेज्जतिभाग अब्भहिए वा संखेज्जगुणअब्भहिए वा असंखेज्जगुणअब्भहिए वा ; ठितीए सिय सिय तुल्ले सिय अब्भहिए— जति हीणे असंखेज्जभागहीणे वा संखेज्जभागहीणे वा, संखेज्ज गुणी वा अह अब्भतिए असंखेज्जभागअब्भतिए वा संखेज्ज्भागअब्भतिए वा संखेज्जगुणअब्भतिए वा; वण्णेहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहिं, मतिअण्णणपज्जवेहिं सुयअण्णाणपज्जवेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहि छट्ठाणवडिते । [४४३ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [४४३ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं । [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम! एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, (आत्म) प्रदेशों की अपेक्षो से (भी) तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है और कदाचित् अधिक है । यदि हीन है तो असंख्यात भागहीन है अथवा संख्यातभाग हीन है, अथवा संख्यातगुण हीन है, अथवा असंख्यातगुण हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक है या संख्यातभाग अधिक है, अथवा संख्यातगुण अधिक है अथवा असंख्यातगुण अधिक है। स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन है कदाचित् तुल्य है, कदाचित् अधिक है। यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है, या संख्यात भाग हीन है, अथवा संख्यातगुण हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक है, १. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा-2, पृ. ५७६ से ५७९ तक
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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