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बंध न होने से उनके स्कन्ध नहीं बनते। स्कन्ध के अभाव में प्रदेश-प्रचयत्व की कल्पना भी नहीं हो सकती। कालद्रव्य में स्वरूप और उपचार—इन दोनों ही प्रकार से प्रदेशप्रचय की कल्पना नहीं हो सकती।
आकाशद्रव्य सभी द्रव्यों को अवगाहन देता है। यदि आकाशद्रव्य विस्तृत नहीं होगा तो वह अन्य द्रव्यों को स्थान नहीं दे सकेगा। उसके अभाव में अन्य द्रव्य रह नहीं सकेंगे। धर्मद्रव्य गति का माध्यम है। वह उतने ही क्षेत्र में विस्तृत और व्याप्त है, जिसमें गति सम्भव है। यदि गति का माध्यम स्वयं विस्तृत नहीं है तो उसमें गति किस प्रकार सम्भव हो सकती है? उदाहरण के रूप में जितने क्षेत्र में जल होगा, उतने ही क्षेत्र में मछली की गति सम्भव है। वैसे ही धर्मद्रव्य का प्रसार जिस क्षेत्र में होगा, उस क्षेत्र में पुद्गल और जीव की गति सम्भव होगी, इसलिए धर्मद्रव्य को लोक तक विस्तृत माना है। यही स्थिति अधर्मद्रव्य की भी है। अधर्म द्रव्य के कारण ही परमाणु स्कन्ध के रूप में बनते हैं। स्कन्ध के रूप में परमाणुओं को संगठित रखने का कार्य अधर्मद्रव्य का है। आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। उन असंख्यात प्रदेशों को शरीर तक सीमित रखने का कार्य अधर्मद्रव्य है। विश्व की जो व्यवस्था पद्धति है, उसको सुव्यवस्थित रखने में अधर्मद्रव्य का महत्त्वपूर्ण हाथ है, इसलिए अधर्मद्रव्य को भी लोकव्यापी माना है। अधर्मद्रव्य के अभाव में परमाणु छितरबितर हो जायेंगे। उनकी किसी भी प्रकार की रचना सम्भव नहीं होगी। जहाँ-जहाँ पर गति का माध्यम है, वहाँ-वहाँ पर स्थिति का माध्यम भी आवश्यक है, जो गति का नियंत्रण करता है। विश्व की गति को और विश्व को संतुलित बनाये रखने के लिए अधर्मद्रव्य को लोकव्यापी माना है। इसलिए उसे अस्तिकाय में स्थान दिया है। पदगलद्रव्य में भी विस्तार है। वह परमाण से स्कन्ध के रूप में परिवर्तित होता है। परमाण में स्निग्धता और रूक्षता गुण रहे हुए हैं, जिनके कारण वह स्कन्धरचना करने में सक्षम है। इसीलिए उपचार से उसमें कायत्व रहा हुआ है। पुद्गलद्रव्य के कारण ही विश्व में मूर्तता है। यदि पुद्गल न हो तो मूर्त विश्व की सम्भावना ही नष्ट हो जाये। जीवद्रव्य भी विस्तारयुक्त है। शरीर के विस्तार की तरह आत्मा का भी विस्तार होता है। केवलिसमुद्घात के समय आत्मा के असंख्यात प्रदेश सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। इसीलिए उसे अस्तिकाय में स्थान दिया है। हम यह पूर्व में बता चुके हैं कि काल के अणु स्निग्धता और रूक्षतागुण के अभाव में स्कन्ध या संघात रूप नहीं बनते। हम अनादि भूत से लेकर अनन्त भविष्य तक का अनुभव तो करते हैं, किन्तु उनमें कायत्व का आरोपण नहीं किया जा सकता। काल का लक्षण वर्तना केवल वर्तमान में ही है। वर्तमान केवल एक समय का है, जो बहुत ही सूक्ष्म है। इसलिए काल में प्रदेशप्रचय नहीं मान सकते और प्रदेशप्रचय के अभाव में वह अस्तिकाय नहीं है।
यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा सभी द्रव्यों का विस्तारक्षेत्र समान नहीं है। आकाशद्रव्य लोक और अलोक दोनों में है। धर्म और अधर्म द्रव्य केवल लोक तक सीमित हैं। पुद्गल और जीव का विस्तार क्षेत्र एक सदृश नहीं है। पुद्गलपिण्ड का जितना आकार होगा, उतना ही उसका विस्तार होगा। जीव भी जितना शरीर विस्तृत होगा, उतना ही वह आकार को ग्रहण करेगा। उदाहरण के रूप में एक चींटी में भी आत्मा के असंख्यप्रदेश हैं तो एक हाथी में भी। उससे स्पष्ट है कि सभी अस्तिकायों का विस्तारक्षेत्र समान नहीं है।
भगवतीसूत्र में६८ प्रदेशदृष्टि से अल्पबहुत्व को लेकर सुन्दर वर्णन है। वहाँ पर यह प्रतिपादित किया
६८. भगवतीसूत्र -१३/५८
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