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तृतीय बहुवक्तव्यतापद]
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क्षेत्रानुसार लोक के उक्त छह विभागों में जीवों का अल्पबहुत्व-ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक में सबसे कम जीव हैं, क्योंकि यहाँ का प्रदेश (क्षेत्र) बहुत थोड़ा है। उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक में जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि विग्रहगति करते हुए या वहीं पर स्थित जीव विशेषाधिक ही हैं। उनकी अपेक्षा तिर्यक्लोक में जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि ऊपर जिन दो क्षेत्रों का कथन किया गया है, उनकी अपेक्षा तिर्यक्लोक का विस्तार असंख्यातगुणा है। तिर्यग्लोक के जीवों की अपेक्षा तीनों लोकों का स्पर्श करने वाले जीव असंख्यातगुणे हैं। जो जीव विग्रहगति करते हुए तीनों लोकों को स्पर्श करते हैं, उनकी अपेक्षा यह कथन समझना चाहिए। उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे जीव इसलिए हैं कि उपपातक्षेत्र की वहाँ अत्यन्त बहुलता है। उनकी अपेक्षा अधोलोकवर्ती जीव विशेषाधिक हैं; क्योंकि अधोलोक का विस्तार सात रज्जू से कुछ अधिक प्रमाण है।
क्षेत्रानुसार चार गतियों के जीवों का अल्पबहुत्व—(१) नरकगतीय अल्पबहुत्व—सबसे कम नरकगति के जीव त्रैलोक्य में अर्थात्-तीनों लोक को स्पर्श करने वाले हैं। यह शंका हो सकती है, कि नारक जीव तीनों लोकों को स्पर्श करने वाले कैसे हो सकते है, क्योंकि वे तो अधोलोक में ही स्थित हैं, तथा वे सबसे कम कैसे हैं ? इसका समाधान यह है कि मेरुपर्वत के शिखर पर अथवा अंजन या दधिमुखपर्वतादि के शिखर पर जो वापिकाएँ हैं, उनमें रहने वाले जो मत्स्य आदि नरक में उत्पन्न होने वाले हैं, वे मरणकाल में इलिकागति से अपने आत्मप्रदेशों को फैलाते हुए तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं, और उस समय वे नारक ही कहलाते हैं, क्योंकि तत्काल ही उनकी उत्पत्ति नरक में होने वाली होती है, और वे नरकायु का वेदन करते हैं। ऐसे नारक थोड़े ही होते हैं, इसलिए उन्हें सबसे कम कहा है। त्रिलोकस्पर्शी नारकों की अपेक्षा पूर्वोक्त अधोलोकतिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे नारक हैं; क्योंकि असंख्यात द्वीप-समुद्रों में रहने वाले बहुत-से पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जब नरकों में उत्पन्न होते हैं, तब इन दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं, इस कारण वे त्रैलोक्यस्पर्शी नारकों से असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका क्षेत्र असंख्यातगुणा है। मेरु आदि क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात द्वीप-समुद्ररूप क्षेत्र असंख्यातगुणा है। (२) तिर्यंचगतिक अल्पबहुत्व-सबसे कम तिर्यञ्च ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, क्योंकि ये तिर्यग्लोक के उपरिलोकवर्ती और ऊर्ध्वलोक के अधोलोकवर्ती दो प्रतरों में हैं, उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक में अधोलोक के ऊपरी और तिर्यग्लोक के निचले दो प्रतरों में विशेषाधिक हैं। इनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक, त्रैलोक्य एवं ऊर्ध्वलोक में उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगुणे हैं। त्रैलोक्यसंस्पर्शी तिर्यचों की अपेक्षा ऊर्ध्वलोक (ऊर्ध्वलोकसंज्ञक प्रतर में) असंख्यातगुणे तिर्यञ्च हैं। इनकी अपेक्षा अधोलोक में विशेषाधिक हैं। तिर्यंचस्त्रियाँ-क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे कम तिर्यचिनी ऊर्ध्वलोक का स्पर्श करने १. (क) वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक १४४ (ख) 'सव्वत्थोवा जीवा नोपज्जत्ता-नोअपज्जता, अपज्जत्ता अणंतगुणा, पज्जत्ता संखेज्जगुणा'
-प्रज्ञापना. मूलपाठ टिप्पण भा. १, पद ३